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मेघ-सन्देश के व्याज से कालिदास का अपना संदेश

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Kalidas मेघ-सन्देश के व्याज से कालिदास का अपना संदेश

” मेघ-सन्देश के व्याज से कालिदास का अपना संदेश ”
इस सन्दर्भ में मेरा मानना है कि कालिदास ने मेघदूत में यक्ष-यक्षिणी कि विरह दशा को जो दर्शाया है वह उनकी स्वयं कि मनोदशा है . कालिदास यहाँ यक्ष के रूप में विश्लेषित हैं.

यक्ष का सन्देश मात्र सन्देश नहीं है, वह कालिदास की मनोव्यथा है. यक्ष को प्रतीक के रूप में प्रयोग किया  है . कालिदास ने स्वयं को यक्ष के रूप में प्रस्तुत कर अपनी प्रियतमा विद्द्योत्तमा को यक्षिणी के रूप में उपस्थित किया है. कालिदास ने अपनी विरह वेदना को यक्ष के रूप में मेघदूत के माध्यम से इस संसार को उत्कट प्रेम का सन्देश मानव को दिया है. इस महाकाव्य में कालिदास ने काव्य की एक सर्वथा अभिनव सरणि का उद्घाटन किया है . कालिदास इस काव्य में सर्वथा नवीन और वैयक्तिक है. मेघदूत को दूत बनाकर उन्होंने सर्वथा शाश्वत प्रेमी होने का प्रमाण उपस्थित किया है. कालिदास ने कांता- विश्लेषित यक्ष को अपनी प्रियतमा की स्मृतियां व्यथित करने और कवि का सजीव भाव-विह्वल चित्र प्रस्तुत करने का कार्य किया है.
इस काव्य के साथ मेघ के सौंदर्य ,लोकोपकारित्व तथा जनमन आह्लादकारिता का इतना पुष्कल चित्रण हुआ है कि पाठक मानने के लिए प्रवृत हो जाता है कि काव्य का प्रकृत नायक मेघ ही है और यक्ष-यक्षिणी केवल अवर कोटि के व्यक्ति हैं. वस्तुतः कालिदास ने अपनी जीवन -गाथा को उपस्थापित कर मानव को अपने अमर प्रेम का संदेश दिया है. विवाह के दिन ही पत्नी द्वारा उपेक्षित होने पर अपनी पीड़ा से व्यथित थे. अपनी प्रेयसी के विरह में व्याकुल थे. यक्ष के स्थान पर स्वयं को उपस्थापित कर अपनी प्रेयसी को यक्षिणी के रूप में रख कर ‘मेघदूत’ खण्डकाव्य की रचना की. वह प्रेम में इतने उद्विग्न थे कि धूम ज्योति , सलिल आदि से निर्मित मेघ जो अचेतन है ,उसको सजीव बनाकर एक अदभुत प्रेम से मानव को अवगत कराया है. प्रेम में मानव इतना अँधा हो जाता है कि उसे चेतन-अचेतन का ज्ञान ही नहीं होता. उसको अपनी प्रियतमा ही सर्वत्र दृष्टिगत होती है. प्रेम में अनुरक्त मानव का जीवन कितना संवेदनशील होता है इसका चित्रण लेखक ने इस काव्य के द्वारा अपनी दशा का वर्णन किया है. विरह व्यथा में मानव को या तो अपनी प्रियतमा की याद आती है या ईश्वरप्रदत्त प्रकृति की. कालिदास ने भी यक्ष के द्वारा मेघ को सजीव बनाकर अपनी इस भावना का उदगार व्यक्त कर मानव को एक नया सन्देश दिया है.

कालिदास ने जब आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखा तो उनकी कल्पना ने उड़ान भरकर उनसे यक्ष के रूप में स्वयम को और मेघ के रूप में दूत के माध्यम से स्वयम अपनी ही विरह-व्यथा का वर्णन करने के लिए ‘मेघदूत’ की रचना ही कर डाली। अपनी प्रियतमा के लिए छटपटाने लगे और फिर सोचा कि प्रियतम के पास लौटना तो उनके लिए सम्भव नहीं है, इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए। मेघ तो चलायमान है और दूत भी तो चलायमान ही होता है. कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया भी उनके विरह में प्राण दे दे। और कालिदास की यह विरह गाथा उनकी अनन्य कृति बन गयी।

कुबेर की राजधानी अलकापुरी में एक यक्ष की नियुक्ति यक्षराज कुबेर की प्रातःकालीन पूजा के लिए प्रतिदिन मानसरोवर से स्वर्ण कमल लाने के लिए की गयी थी। यक्ष का अपनी पत्नी के प्रति बड़ा अनुराग था, इस कारण वह दिन-रात अपनी पत्नी के वियोग में विक्षिप्त-सा रहता था। उसका यह परिणाम हुआ कि एक दिन उससे अपने नियत कार्य में भी प्रमाद हो गया और वह समय पर पुष्प नहीं पहुँचा पाया। कुबेर को यह सहन नहीं हो सका और उन्होंने यक्ष को क्रोध में एक वर्ष के लिए देश निकाल दिया और कहा दिया कि जिस पत्नी के विरह में उन्मत्त होकर तुमने उन्माद किया है अब तुम उससे एक वर्ष तक नहीं मिल सकते। यह कल्पना हो सकता है .
कालिदास को उनकी पत्नी उनके अशिक्षित होने के कारण उनसे विलग होने को बाध्य किया था, और इसी बाध्यता के कारण वे अपनी प्रियतमा के पास नहीं जा सकते थे अतः विरह का उनका यह स्वनुभूत महाकाव्य है.

अपनी पत्नी का एक क्षण का भी वियोग जिसके लिए असह्य था, वह अब इन आश्रमों में रहते हुए सूखकर कांटा हो गया था। वियोग में व्याकुल उन्होंने कुछ मास तो उन आश्रमों में किसी-न-किसी प्रकार बिताए, किन्तु जब गर्मी बीती और आषाढ़ का पहला दिन आया तो देखा कि सामने पहाड़ी की चोटी बादलों से लिपटी हुई ऐसी लग रही थी कि कोई हाथी अपने माथे की टक्कर से मिट्टी के टीले को ढोने का प्रयत्न कर रहा है।

अतः मुझे प्रतीत होता है कि इस काव्य के रचना में कवि ने अपनी मनोव्यथा यक्ष को माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया है.

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