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किसी को समझने के लिए भगवन को एक मीटर बनानी चाहिए थी . जीवन भर किसी के साथ रहने के बाद भी किसी को समझना कठिन है. जीवन एक पहेली है. हर पल नए -नए रंग देखने को मिलते हैं. मानव के दोहरे व्यक्तित्व के दर्शन होते रहते हैं. छल-प्रपंच के पुतले ‘मानव’ को कैसे पहचाने?
सुनामी की वह लहरें , तूफानी हवाएँ , उठती समुद्र की लहरें सम्पूर्ण वातावरण को अपने विशाल रूप में समेटने की चाहत से समुद्र में उफान अपने गर्जन से सम्पूर्ण धरा को विध्वंस करनेवाली वह भयानक शोर से व्याकुल कन्नगी कितनी बार पलकें खोलीं मूंदी. लहरों में मानव को समाते देखकर तथा उनके करुण क्रंदन से कन्नगी निराशभाव से चहुँ ओऱ निहार रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे समुद्र अपनी रहस्यमयी गोद में हर मानव को लपेट लेगी. मानव ने जो अत्याचार वातावरण के साथ किया है आज उसका बदला यह समुद्र इस तरह लेना चाहती है. परिस्थिति को समझने का प्रयत्न करने लगी . समुद्र की लहरें की तरह उसके अंतःकरण में भी लहर ने स्थान ले लिया. विचार मंथन में वह वर्तमान को भूल गयी . अक्सर वर्तमान में उपस्थित रहते हुए भी लोग भूत और भविष्य में अधिक जीते हैं. तब ये हुआ और आगे ये हो सकता है . इन पश्चाताप और आगत घटनाओं का डर लोगों को वर्तमान में रहने नहीं देता है. या तो वह भूत में जीता रहता है नहीं तो भविष्य में, कुछ इसी तरह कन्नगी भी वर्तमान को भूल गयी.
कन्नगी! वाह रे नाम . नाम अक्सर मनुष्य के पैदा होने पर माँ – बाप या घर के बुजुर्ग द्वारा संबोधन हेतु दिया गया एक पहचान होता है. कभी कभी जब लोग खास कर्मों के कारण चिन्हित होते है तब भी नामकरण हो जाता है . जैसे पद के कारण या सुकर्म या दुष्कर्म के कारण . कन्नगी के मन में भी प्रश्न उठता है क्या वह कन्नगी है? खुद से पूछती है वह तो पिता द्वारा प्रद्दत नाम कांता से पुकारी जाती थी . खुद वह भी एक अंतराल के लिए भूल चुकी थी की वह कांता थी. आज तो सभी उसे कन्नगी ही संबोधित करते हैं.
वह पलकें मूंद भूत में चली गयी . कांता ! कांता ! कहाँ हो? माँ की स्नेहमयी पुकार को सुनकर वह दौड़ कर माँ के गले लग गयी . माँ ने स्नेहवश माथा चूम लिया और पूछ बैठी – कांता आज स्कूल नहीं जाओगी?
कांता ने कहा -नहीं माँ आज मैं आपके साथ ही रहूंगी. माँ ने बड़े प्यार से समझाया . कांता पढ़ेगी नहीं तो टीचर कैसे बनेगी ? माँ के स्वप्न को कैसे साकार करेगी? कांता ने भोली बच्ची की स्वाभाविक आवाज में कहा – जरूर जाऊँगी.
कांता माता-पिता की एकलौती संतान थी. अपने माता-पिता की आँखों की तारा थी. पिता कठोर स्वभाव के जरूर थे , अनुशासन प्रिय भी थे पर कांता से बेहद प्यार करते थे . कौन ऐसा निर्मम पिता होगा जो अपने एकलौती संतान से प्रेम नहीं करेगा ? लेकिन दादा-दादी , नाना-नानी ,विशेषकर माँ अर्थात अपनी पत्नी माया का कांता के प्रति उत्कट लगाव के कारण वे यानी देवेंद्र बाबु कांता के साथ कठोर व्यवहार का दिखावा करते थे. सदा अपनी पत्नी माया से कहा करते थे कि ज्यादा सर पर मत चढ़ाओ , बिगड़ जाएगी , पराये घर जाना है. लेकिन माया की तो वह आँखों की तारा थी . माया बहुत स्नेह करती थी .
कांता धीरे -धीरे बड़ी होने लगी . बेटियों को बड़ा होने में देर ही कितनी लगती है ? खास कर उस समाज में बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती है जिस समाज में गंदे विचारों वाले बुजुर्ग लोग पांच से 10 साल की लड़कियों को भी बुरी नज़रों से तौलने लगते है और अवसर पा कर दुष्कर्म करने में भी पीछे नहीं रहते. पिता तो अपने बच्ची को दरिंदों से दूर बचाकर रखने की चाहत में अबोध बच्चों को भी बड़ी समझने लगता है. और अब कांता तो १५ साल की हो गयी थी.
बहुत सुन्दर थी. आकर्षक , एक नज़र उस पर पड़े तो वहीँ ठहर जाता था लोगों की नज़रें. रंग सांवला था पर तीखे नयन नक्श , पतली छरहरी कांता सबके आकर्षण का केंद्र थी. वह अपने समवयस्क सभी सहेलियों में सबसे सुन्दर थी. सौम्य शोख और स्वाभाव से अति चंचल थी. अपनी चपलता से सारे परिवार की चहेती थी.
देवेंद्र बाबु बहुत बड़े उद्योगपति थे. अपनी पुत्री की सुंदरता तथा चपलता से वे भी अत्यंत प्रसन्न रहते थे. कांता को अपनी प्रिय सहेली मयूरी संग सगी बहन सदृश लगाव था . कांता की मीठी आवाज से सभी मन्त्रमुग्ध रहते थे. गले में सरस्वती का वास था. संगीत में अधिक रूचि भी था. कोकिलकंठा कांता जब भजन गाती थी तो जिनके भी कानों में उसका स्वर पहुंचता था वे सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे. घर के समीप ही मंदिर था वहां वह अक्सर “दर्शन दो घनश्याम……..” भजन गति थी. ऐसा प्रतीत होता था कि साक्षात् सरस्वती का वास उसके गले में हो. मंदिर के आस -पास के सभी लोग उसके भजन को सुनाने आ जाते थे. लगता था जैसे स्वयं कृष्ण अपनी भक्तन का भजन सुनाने आ गए हों.
एक दिन वह भजन गया रही थी तो एक अत्यंत सभ्रांत व्यक्ति ने पुजारीजी से पूछा कि यह कोकिला किसकी बेटी है. पंडितजी, पुजारीजी ने कहा -देवेंद्र बाबु की इकलौती संतान है. बहुत ही सज्जन हैं वे. और बिटिया तो सौन्दर्य के साथ मीठी स्वभाव की भी धनी है. प्रश्नकर्ता सभ्रांत व्यक्ति पड़ोस से गाँव के थे. सुरेशबाबू पेशे से वकील थे . अब उनका नित्य नियम बन गया कि वह मंदिर उसी काल आते जब कांता मंदिर में भजन गया रही होती. एक महीना निरंतर वे उस मुग्धा का भजन सुनने आते रहे. कांता से भी बातें करते . कांता की सहेली मयूरी कभी-कभी उसे छेड़ती – ये सुरेश बाबु तुम्हें पसंद करते हैं ,निश्चित रूप से इनका कोई स्वार्थ होगा . मानव बिना स्वार्थ के साँस भी नहीं लेता . वकील साहब जरूर तुम्हें अपने घर की बहु बनाएंगे .इनके तीन बेटे हैं. संभल कर रहना . कांता कहती धत्त ! तुम्हें हर बात में कुछ भेद ही दिखता है. मंदिर आते हैं कान्हा के दर्शन के लिए . एक दिन विद्यालय से लौटी तो देखा माँ और दादी दोनों बहुत प्रसन्न हैं. सबको हंसते देखकर कांता ने पूछा क्या बात है? आज ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई त्यौहार हो. माँ मुहँ में मिठाई देते हुए कहा – तू बहुत भाग्यशाली है, आज स्वयं लडके के पिता ने तेरा हाथ माँगा है. लड़का डाक्टरी कर रहा है. तुम्हें भी पढ़ा देगा. कांता रोने लगी – नहीं मुझे पढ़ना है, मैं आप सबको छोड़ कर नहीं जाउंगी . उसको सबने समझाया और जैसे ही उसने वकील साहब का नाम सुना तो उसको अपने सहेली कि कही बात याद आ गयी. पता नहीं क्या हुआ वकील साहब का नाम सुनते ही किस डोर का बंधन था वह मन ही मन प्रसन्न ही हुई . मयूरी के सदा छेड़ने के कारण उसका स्नेह हो गया था उस परिवार से .
दो महीने बाद विवाह की तिथि तय हुई . अब वह कहीं जाती नहीं थी. शुभ घडी भी आ गया. वकील साहब का लड़का रमण अत्यंत ही मेधावी था. वह भी बहुत सुन्दर था . रमण और कांता विवाह सूत्र में बंध गए. विवाह वेदी पर दोनों ने एक दूसरे को देखा . दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी थी.
कांता में एक बहुत बड़ी कमी थी , सहनशक्ति का अभाव. सहन करना आता ही नहीं था. बहुत ही क्रोधी थी. कहा जाता है कि नाक पर गुस्सा! कांता का भी क्रोध ऐसा ही था. बरसाती नदी की तरह कब बाढ़ आजाये पता ही नहीं चलता, उसी तरह कांता को भी किस बात पर गुस्सा आ जाये इसका बोध ही नहीं होता था. बाद में पछताती थी और मन ही मन प्रण लेती थी अब दोबारा गुस्सा नहीं करुँगी. लेकिन फिर भी दोबारा वही हाल हो जाता था. बड़े घर की बेटी थी उसके इस अवगुण से सभी अनजान थे पर घर के लोग तो इस बात को जानते ही थे और इस की उन्हें चिंता भी थी. बिदाई के समय दादी ने कहा कि देखो कांता आज से स्वार्थ का रिश्ता आरम्भ हो गया . सास -ससुर, देवर-ननद यहाँ तक पति का भी ध्यान रखोगी तो सब तुम्हारा भी ध्यान रखेंगे स्नेह करेंगे, लेकिन थोड़ा भी अपने कर्तव्य से विमुख हो गयी तो कोई भी साथ नहीं देगा . किसी पर भी कभी क्रोध मत करना. वह बोली- नहीं करुँगी दादी. बिदाई के घडी में पिता ने भी कहा था
क्रोध मत करना . बेटा यदि कभी अपने ससुराल वाले के इज़ाज़त के बिना गुस्से में मेरे घर आ गयी तो द्वार बंद पाओगी . इतना कह कर पिता ने अपनी प्राण प्रिय बेटी को गले से लगा कर बिलख पड़े. इकलौती संतान के जाने कि पीड़ा से माया सँज्ञाशून्य हो गयी थी. कांता के जाने के बाद उसके मायके का वही हाल था जैसे शरीर से प्राण निकल जाता है. कौन किसे संभाले सबकी दशा दयनीय ही थी. उस ज़माने में फ़ोन तो अधिक होता नहीं था साथ में काम वाली को भेज दिया जाता था.
ससुराल में कांता का भव्य स्वागत हुआ. सब ने घर की पहली बहु को बहुत स्नेह दिया. काम वाली जिसका नाम फूलमती था एक महीने बाद लौट गयी. फूलमती के जाने के बाद कांता को अजीब रिक्तिता का आभास होता था . वकील साहब का भरापूरा परिवार था . तीन पुत्र और दो पुत्रियां . कांता से सभी स्नेह रखते थे. रमण का ननिहाल समीप ही था. नानी यदा-कदा आ जाया करती थी. नानी कांता से बहुत स्नेह करती थी . नानी जब तक रहती कांता का वात्सल्य जाग उठता था. नानी बहुत ही ममतामयी थी. रमन को दो वर्ष अध्ययन में शेष था. वह अध्यन करने चले गए. रमण के जाने के बाद कांता को अजीब खालीपन का एहसास होता था.
एक वर्ष बाद कांता को पीहर जाने का अवसर मिला . वह अत्यंत प्रसन्न थी . सुख सुविधा में पली कांता ससुराल में बड़े परिवार तथा वकील साहब की सीमित आय के कारण अभाव तो था ही, साथ ही सास का कठोर स्वाभाव . सबको खिलाकर खाना , घर का सारा कार्य करना , वह कुम्भला सी गयी थी. माँ तो माँ होती है . बेटी के निस्तेज चेहरा को देख कर ही उन्हें अनुभव हो गया कि बेटी सुखी नहीं है. कांता के आने की सूचना से सभी अत्यंत प्रसन्न थे. सम्पूर्ण गावँ के लोग उससे मिलाने आ गए थे. सब के जाने के बाद माया देवी ने बेटी से पूछा कि तुम कुशल से तो हो , प्रसन्न तो हो ,क्यों चेहरा मुरझाया हुआ है. फूलमती कह रही थी कि तेरी सास बहुत तेज़ है. सच है क्या ? माँ की उत्कंठा देख कर उसने कहा – नहीं माँ सब ठीक है. तुम्हें भ्रम हो रहा है. सभी अत्यंत स्नेह करते हैं. दोनों ननद सहेली जैसी हैं. सास भी मानती ही हैं. ससुर तो देव तुल्य हैं . व्यर्थ शंका मत करो . फूलमती तो ऐसे ही बोल देती हैं . उसके बात का क्या भरोसा ? और साथ में चिंतन करने लगी कि फूलमती कितनी तीव्र बुद्धि की है कि एक महीने में ही सब समझ गयी . बेटी की बातों को सुनकर माँ ने संतोष की सांस ली . साथ में सोचा कि एक साल की ही तो बात है. रमण पढाई पूरी कर लेंगे तो उनके साथ ही तो रहेगी .
अभी दो दिन भी व्यतीत नहीं हुआ था कि ससुराल से सूचना मिली कि श्वसुर का देहांत हो गया. कांता विह्वल हो गयी . इतने स्नेही पिता तुल्य श्वसुर नहीं रहे , अब तो सास का कहर टूट पड़ेगा . यदा -कदा श्वसुर अपनी प्रचंड पत्नी से उसकी रक्षा करते थे. उनके शब्द वाणों से घायल होने से बचाते थे. रमण को तो कोई सुध नहीं थी. मात्र यही कि उनके परिवार को किसी तरह ठेस न पहुंचे , अस्तु वह ससुराल आ गयी .
घर से आय का श्रोत चले जाने से कलह आरम्भ हो गया. ननद देवर भी अब घर के मुखिया के नहीं रहने से उद्दंड एवं वाचाल हो गए. सास का सारा क्रोध कांता पर ही उतरता था. हमेशा उसे लांछित करती रहती थी. कांता अपनी दादी की सीख की- क्रोध मत करना , चाहे कुछ भी हो जाये . पिता का अंतिम शब्द यदि गुस्सा कर या झगड़ कर आयी तो यहाँ का द्वार बंद पाओगी . समय अपनी गति से आगे चल रहा था. वह एक बच्चे की मां भी बन गयी. रमण भी डाक्टरी का अध्ययन पूर्ण कर नौकरी पर लग गए थे. अवकाश में रमण घर आये हुए थे.कांता रसोई घर में काम कर रही थी. एक शीशे का गिलास उसके हाथ से छूट कर फर्स पर गई कर टूट गया. सास का क्रोध फुट पड़ा . चिल्लाने लगी . तोड़ दी न गिलास , बाप के घर से लायी थी क्या? इतने में ननद टपक पड़ी और कहने लगी इनका काम में तो ध्यान ही नहीं रहता . सदा मायके के ध्यान में लीन रहती हैं. कांता से अब नहीं रहा गया और उसने क्रोध से कहा -आप क्यों बोल रही हैं, आप चुप रहिये . मुँह खोलते ही सब कांता पर टूट पड़े. रमण भी कांता को ही दोषी मान कहने लगे- हाँ तो क्या सब तुम्हारी गुलामी करेगा? क्या हुआ मायके के बारे में कह दी तो? यदि बुरा लगता है तो इस घर से चली जाओ . बर्षों से दबा क्रोध ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा. दादी की सीख धरी की धरी रह गयी. पापा का आदेश कहीं गुम हो गया और हो भी क्यों न ? कहा भी गया है कि वीणा की तार को इतना मत खींचो कि वह टूट ही जाये. कांता भी थी तो मानवी ही . जबाब देने लगी सबको . और अश्रुधारा नयनों से बहने लगे. रमण जानते थे कि कांता निर्दोष है , फिर भी पत्नी को दोषी मान कर थप्पर मारने को उद्द्यत हो गए.
यह कहावत अक्षरशः प्रमाणित हो रहा था कि – पति अपने परिवार का ही होता है. यह उस परिवार पर निर्भर करता है कि वह अच्छा है या बुरा . शायद ही कोई पति अपनी पत्नी का पक्ष लिया हो. उसके पुरुषत्व को ठेस पहुंचती है पत्नी का साथ देने में. रमण कैसे इससे अछूते रहते ! हाय रे किस्मत ! नाज़ों से पली कांता की यह दयनीय दशा एक गिलास के लिए. जिसके मायके में सैकड़ो सेवक-सेविकाएं उसके आगे -पीछे घूमते फिरते थे. उस घर की लाडली की यह दुर्दशा. कभी भी जो स्वयं जो रिश्ता मांगने आये उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए.
कुछ देर बाद परिवार के सभी सदस्य मिलकर हंसने- बोलने लगे , ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कुछ हुआ ही न हो. निरीह कांता उपेक्षिता सी सबको देख रही थी. पता नहीं क्या हुआ रात्रि के १२ बजे सबके सोने के बाद रमण के पास बच्चे को छोड़ कर निकल पड़ी मायके की ओर. जब मायके के द्वार पर पहुंची कि अकस्मात पिता के कठोर आदेश याद आ गया कि कभी भी क्रोध कर के या झगड़ कर मत आना . वह दबे पाँव लौट गयी. उस अनजाने सफर की ओर जिसका मार्ग भी पता नहीं था. चलते -चलते मार्ग में गंडक नदी को देख कर उस में कूद गयीं. और यह सोच कर कि अब सदा -सर्वदा के लिए स्वार्थी मानवों से मुक्ति मिल जायेगी. ईश्वर की रचना या कोई कार्य को साधारण मानव कैसे समझ सकता है. जब तक ईश्वर साँस का डोर दिया तब तक कोई भी अपना अंत स्वाम नहीं कर सकता है. कांता के साथ भी यही हुआ. अभी उसके जीवन की डोर को ईश्वर ने छोड़ा नहीं था.
एक तीव्र गंध से उसकी चेतना लौटी. भयंकर दुर्गंध का भभाका उसके नथुने में समां गयी. और उसे उल्टी आने लगी. देखा कि कुछ लोग उसे पानी दे रहे हैं, हाल पूछ रहे हैं. कैसी हैं? कहाँ से आयीं हैं? और कौन है? वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं थीं. सोचने लगीं कि क्रोध में अपना अनर्थ कर डाली. दुधमुहें बच्चों को छोड़ आयी. उसका क्या दोष था? सहन कर लती तो क्या होता? और मन ही मन चीत्कार कर उठी. हाय मेरा बच्चा ! मेरे बिना उसका क्या हाल होगा? रमण कैसे होंगे? अब क्या करूँ? किस मुंह से जाऊं ? अब लौटना तो कठिन है. इच्छा हुई कि पिता के पास चली जाये. फिर उनकी कही बातों ने उस ओर सोचने तक नहीं दिया. बूढी दादी का क्या हाल होगा ? मेरी माँ मेरे बिना जीवित भी होगी? पुनः अपने बच्चे की याद से वात्सल्य प्रेम उग्र हो उठा. नयनों के कोर से अश्रुधारा बह चली. अभी चिंतन में तल्लीन ही थी कि एक नन्हा सा अबोध बालक उसके आँसू पोछने लगा .उस कृष्णवर्ण के बालक को देखकर वह ममता के वशीभूत होकर उस बच्चे में अपने बच्चे का प्रतिबिम्ब उसे सहसा दृष्टिगत होने लगा वह अचानक उसे अपने अंक में भरकर चूमने लगी .सभी को प्रसन्नता के साथ कौतुहल भी हुआ ,परिचय पूछने लगे ,लेकिन मौन देखकर एक सह्रदय बुजुर्ग ने कहा अभी अभी तो मूर्छा टूटी है १० दिनों के बाद .अभी मत पूछो दिमाग पर जोड़ पड़ेगा .डॉ. को बुलवाते हैं जैसा कहेगा वैसा करेंगे . पहले खाना खिलाओ .कुछ देर बाद डॉ. ने इस बात की पुष्टि कर दी कि इनकी स्मरण शक्ति विलुप्त हो गयी है .समय के साथ स्मरण शक्ति लौट आएगी .कांता मौन रहना ही श्रेस्कर समझा, मन ही मन सोचा कि स्त्री का चरित्र शीशे की तरह होता है एक बार घर से पैर निकल गया तो निर्दोष होने के पश्चात भी चरित्रहीन ही माना जाता है. इसलिए नियति मानकर वह उन सब के साथ रहना ही उचित समझी. वे सब मछुआरे थे. किसी संबंधी की विवाह में सम्मिलित होने आये थे जहाँ उन्हें कांता मिली. उस ज़माने में फोन और मिडिया का इतना बोल-बाला नहीं था. किसी ने कहा इसका नाम कन्नगी रख देते हैं क्योंकि जिस बालक ने उसकी अश्रु पोंछी थी उस बालक की माँ का एक महीने पहले देहांत हो गया था जिसका नाम ‘कन्नगी’ ही था. सभी मछुआरे ने कहा की जब इनकी याददाश्त लौट आएगी तो इनके घर पहुँचा देंगे. अभी चेन्नई लेकर चले जाते हैं. कांता चुप रहना ही उचित समझा. अपना भाग्य मान कर वह उन सब के साथ आ गयी. कांता से कन्नगी बन उस बालक की माँ बन गयी जिसका नाम कार्तिक था. वह दो भाई था. कार्तिक और मयंक. उन अनाथ बच्चों का परवरिश करने लगी. ऊपर से शांत पर अंदर से वह अशांत और व्याकुल रहती थी. अपने अबोध बालक के लिए तड़पती रहती थी लेकिन पीछे लौटना असंभव था. कार्तिक और मयंक को ही अपना पुत्र समझ कर पालने लगी. मछुआरे भी धीरे -धीरे उसके अतीत को भुलाने लगे. वे सब गरीब तो थे लेकिन स्वाभाव से अत्यंत निश्छल एवं मृदु थे. कांता का बहुत ध्यान रखते थे . दोनों बच्चे उसे अपनी जननी ही समझते थे. शिक्षित होने के कारण वह दोनों बच्चों को पढ़ाती थी. दोनों बच्चों में अब उसकी जान बसने लगी. मायके शिक्षक बना और कार्तिक डॉक्टर बन गया. अब वो अपना अतीत भूल कर इन मछुआरे परिवार में सम्मिलित हो गयी थी.
दोनों बच्चे चंडीगढ़ गए थे. दोनों के जाने से मायूस कांता सागर के किनारे बैठी थी कि अचानक सुनामी की प्रचण्ड लीला ने तबाही मचाना आरम्भ कर दिया. भयंकर तूफ़ान ने सम्पूर्ण चेन्नई को अपने भीतर समेट लेने को आतुर थे. चारों तरफ चीख पुकार मची हुई थी. लोग अपनी जान बचाने हेतु इधर से उधर भाग रहे थे. कोई किसी की परवाह करे तो कैसे करे हरेक अपनी जान बचाने में जुटे थे. बच्चे भाग रहे थे चिल्ला रहे थे . हर ओर डर व्याप्त था. पानी और तूफ़ान दोनों अपनी शक्ति प्रदर्शित कर रहे थे. सडकों से गलियों तक और यहाँ तक की घरों में पानी घुस आया था.
कन्नगी को अपनी सारी अतीत की घटनाये याद आने लगी और वह भूत और वर्तमान में उलझ गयी. उसके नयनों से अश्रुधारा बह कर ऐसा प्रतीत होता था जैसे सैलाब आ गया हो. और पानी की तीब्र लहार ने उसको अपने भीतर समेट लिया. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसके दुःख का अंत करने के लिए ही सुनामी का आगमन हुआ हो, और कन्नगी को इस सांसारिक मोह से मुक्ति दिलाने के लिए ही सुनामी आया हो. उसे मुक्ति मिल गयी लेकिन वह मुक्ति सुनामी से मिली जो सुनामी उसके हृदय में जब तक वह जीवित थी तब तक अनेकों बार उठता रहा था.
कोई व्यक्ति पराये घर की , अलग परिवेश की, अलग संस्कृति की और अलग समाज की लड़की को बहू बनाकर अपने घर लाता है और अपेक्षा यह करता है कि वह लड़की मेरी माँ की तरह हो मेरी बहन की तरह हो. यह आरम्भ में असम्भव है. समय के साथ वह बदल सकती है लेकिन उसे बदलने के लिए परिवार के हर सदस्य को उतना ही मेहनत करना पड़ेगा जितना आपकी अपेक्षा उस बधू से है. आप पूरी तरह उसे ही बदलना चाहते है तो कठिनता तो होगी ही .. कुछ उसे बदलने में सहयोग करें और कुछ आप भी बदले जिससे उसे यह अहसास हो कि परिवर्तन उस पर थोपा नहीं जा रहा है. तब बदलाब शीघ्र होगा और कन्नगी की तरह पलायन या आत्मघात करने की नौबत नहीं आएगी.
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