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ट्रिंग, ट्रिंग,ट्रिंग …… सायकल की घंटी बजते ही प्रतीक्षारत महिला,पुरुष,युवा, युवती सभी की उत्साह बढ़ जाती थी. कोई अपने बच्चे के पत्र तो कोई पति या पत्नी की प्रेम पत्र पाने के संभावनाओं से ललक भरी दृष्टि से डाकिया की ओर आश भरी नज़रें उठाकर गलियों के किनारे झाँकने लगते थे. हर किसी को चाह रहती थी की उसके अपनों की सलामती की खबर डाकबाबू ले कर आएंगे. डाकबाबू की सभी से बहुत लगाव होता था. डाकबाबू सभी को पहचानते भी थे. नाम से जानते थे और उनको पता होता था की किसका डाक किसके लिए और क्या खबर लेके आया होगा. उस समय बहुत लोग ऐसे होते थे जिनका पत्र लिखना और आया हुआ पत्र बांचना डाकिया का काम होता था. किसका कौन सम्बन्धी कहाँ रहता है उनको सब पता होता था . खाकी वर्दी सर पे टोपी कंधे पर लटका झोला और सायकल औसतन हर डाकिया को लोग भी दूर से ही पहचान लेते थे. लोग भी डाकिया से बहुत प्यार रखते थे, हर सुख दुःख में वे शामिल जो रहते थे. दूर रहने वालों को अपनों से जोड़कर भले ही पत्र रखता था पर डोर तो डाकबाबू ही होते थे.
आज डाकिया का अस्तित्व लगभग लुप्तप्राय हो गया है. आधुनिक तकनीकीकरण के होने से उनका महतव काम हो गया है. अब तो चिट्ठी लिखना भूतकाल जैसे हो गया है , जैसे यह इतिहास की बात हो. अब तो लोग चिट्ठी लिखना भूल ही गए हैं. अब इसका रूप धारण करलिया है फेसबुक, व्हाट्सएप , इ-मेल इत्यादि ने.
यह सही है कि हमें प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती . हम एक दूसरे के विषय में जानने के लिए उत्कंठित नहीं होते . याद आई और बात कर लिए. व्याकुलता तो कम हुई है लेकिन वह जो प्रतीक्षा में आनंद था वो अब कहाँ? नवविवाहिता प्रतीक्षा करती थी अपने पति के प्रेम -पत्र का . प्रातः काल से ही अनवरत प्रतीक्षारत रहती थी , डाकिया को देखते ही प्रसन्नता से खिल उठना , चिट्ठी मिलकर उल्लसित होना फिर प्रसन्न हो कर डाकिया को उपहार स्वरुप कुछ भेंट देना और डाकिया का आशीर्वाद देना , यह सब कहीं इतिहास बन चुका है. डाकिया की वह प्रसन्नता जो नवविवाहित या नवविवाहिता को चिट्ठी देकर होती थी और उस के वजह से डाकिया के चहरे पर आई मुस्कान जो परिलक्षित होता था सब बिता हुआ काल हो चूका है.
वृद्ध माता-पिता अपने बच्चों का पत्र प्राप्त कर जिस तरह आनन्दित होते थे उस तरह आज आधुनिक उपकरण में कहाँ? अपने मन की बातें जो हम चिट्ठी में लिखते थे , वह अब कहाँ? सम्बन्धी से मन की बात लिखकर हम अधिक निकट थे. अपने मन की बात हम सरलता से लिख देते थे. लेकिन आज हम मन से दूर हो गए है. हम अपनी अभिव्यक्ति लिखकर सम्बन्धों में अत्यन्त निकट थे.
आज हम आलसी हो गए हैं, चिट्ठी लिखने के कारण हमें लिखने का अभ्यास होता था, जिससे हम लेखन कला में कुशल होते थे. लिखने के कारण शब्द शक्ति कि पकड़ मजबूत होती थी. लिखावट सुन्दर होती थी. भावना व्यक्त करने की अप्रतिम क्षमता होती थी, अब तो यह विलुप्त ही गयी है.
आज की पीढ़ी अनभिज्ञ है इन बातों से. ”डाकिया डाक लाया ” यह बातें अब स्वप्नवत हो गयी है. मानव सच्ची वास्तविकता से विलग हो गया है. खैर यह समय कि मांग है.
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