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अम्बेडकर प्रदत्त बैसाखी

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Ambedkar
अम्बेडकर विश्वस्तरीय नेता थे . भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार भीमराव अम्बेडकर दलित राजनीतिक नेता एवं एक समाज पुनुरुत्थानवादी थे . वे महान क्रांतिकारी , उद्भट देशभक्त और उत्कृष्ट समाजसुधारक देश की उन महान विभूतियों में हैं जिनपर प्रत्येक भारतवासी को गर्व होगा और उनके सम्मुख प्रत्येक देशवासी का मस्तक सम्मान से झुक जायेगा .
गरीब परिवार में जन्में अम्बेडकर ने अपने जीवन को हिन्दू धर्म की चतुर्वर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्व व्यापित व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में व्यतीत कर दिया . हिन्दू धर्म में मानव को चार वर्गों में विभक्त किया गया था . इस व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिए अपना जीवन संघर्ष में ही व्यतीत कर दिया . अतः बौद्ध धर्म ग्रहण करके समता वादी विचारों से समाज में समानता स्थापित करवाई . बाबासाहब को बौद्ध आंदोलन को आरम्भ करने का श्रेय भी जाता है . उन्हें बौद्ध भिक्षुओं ने बोधिसत्व की उपाधि भी प्रदान की . उनेह भारत रत्न मिला .
वित्तीय बाधाएं पार कर अम्बेडकर उन कुछ तथाकथित अछूतों में से एक बन गए , जिन्होनें भारत के महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की . वे कानून के ज्ञाता ही नहीं विधि ,अर्थशास्त्र व राजनीती विज्ञानं में अपने अध्ययन और अनुसन्धान के कारण कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से कई डिग्रियां अर्जित की .
भारतीय समाज मे सदैव शोषित ,पतित , और पिछड़ी जातियों के ज्ञान शून्य मानव को दबाया गया है योग की भट्टी की तरह उनकी आकाँक्षाओं को उपेक्षा की भट्टी में तपाया गया है और उनपर निर्मम अत्याचार किये गए हैं . बाबासाहब ने इस स्थिति में परिवर्तन लाने का संकल्प लिया . शासन का सूत्र संभालने के बाद यह आवश्यक समझा की निम्न और सदियों से पीड़ित जातियों की सांस्कृतिक एवं सामाजिक सुरक्षा देने के साथ ही ऊँचा उठाया जाय इसीके फलस्वरूप आरक्षण की व्यवस्था की . आरक्षण पिछड़े , निम्न ,और हीन जातियों के लोगों के हेतु सुरक्षात्मक कार्रवाई है .
उन्होंने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की तथा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं , स्कूलों और उन्हें हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान करने की चेष्टा की . जबकि मूल कल्पना में पहले इस कदम की अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर सम्मिलित करने की बात कही गयी थी .
बाबासाहब में अनुकरण करने की अद्भुत क्षमता थी . वे अपना नाम भी अपने प्रिय शिक्षक के नामों का अनुकरण कर ‘आंबेडकर’ रख था . शिक्षक ब्राह्मण थे . वे दलित थे , फिर शिक्षक का नाम का अनुकरण ! कहीं ऐसा तो नहीं की वे उच्च वर्ग में शामिल होने के चाहत के लालसा से ऐसा कर बैठे हों , या अपने पहचान को ग्लानि वश छुपाना चाहते हों . परिवर्तन को स्वीकार करना उनका लक्षण था तभी तो रणछोड़ की भांति हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध को अपनाया था . यह कदम भी उन्होंने शायद अपने को ऊँचा बताने हेतु तो नहीं किया होगा ? उनमें समानता की भावना कूट -कूट कर भरी थी . समय के मांग अनुसार उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर गए थे . लेकिन वे यह नहीं जान सके की इसका दुष्परिणाम इतना भीषण होगा . जनता इस आग में वर्षों तक झुलसती रहेगी . मेधावी बच्चे पिछड़ जायेंगे औसत बुद्धि वाले आगे बढ़ जायेंगे . वे यह भी नहीं समझ सके की भारत के कुछ नागरिक कुंठाग्रस्त , हतास हो जायेंगे . कुशाग्र बुद्धि वाले दर – दर भटकेंगे .
यदि उन्हें थोड़ी भी आशंका होती की यह समस्या विकराल रूप ले लेगी तो शायद वे आरक्षण की व्यवस्था न करके मुफ्त एवं उच्च्स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था निश्चित करवाते . भारतीय संविधान के अंतर्गत सबसे पहले हरिजनों के लिए आरक्षण की व्यवस्था १० वर्षों के लिए था , मूल धारणा यह थी की इस अवधि में यह वर्ग ऊपर उठकर , धरती के गर्द गुब्बार से निकलकर समाज में बराबरी के धरातल पर खड़ा होगा . सुविधाएँ पा कर परिश्रम के सहारे अपनी योग्यता के बल पर समाज में समान अवस्था पा सकेगा. परन्तु यह नहीं हो पाया . यह तो उनके लिए बैसाखी बन गया. साथ-साथ राजनितज्ञों की भी बैसाखी यह साबित हुआ . बैसाखी तो उम्र पर्यन्त की आवश्यकता होती है .
और इस बैशाखी को पाने केलिए वे लोग जो बहुत सक्षम हैं , बड़ी -बड़ी महँगी गाड़ियों पर चढ़ कर धरणा प्रदर्शन करते हैं , सरकारी सार्वजनिक संपत्तियों का विनाश भी करते हैं . सक्षम , सुदृढ़ , जिनके दोनों पांव दुरुस्त हैं वे भी इस बैशाखी को प्राप्त कर लेते हैं और अपने भावी पीढ़ियों को बैशाखी दे कर लंगड़ों की तरह चलने हेतु बाध्य कर जाते हैं .

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