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मैत्रेयी-मिथिला की विदुषी

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महिला दिवस पर पौराणिक महिलाओं का संक्षिप्त परिचय का यह मेरा प्रयास है. आरम्भ मैंने माता ‘कौसल्या’ से किया था अब यह दूसरा प्रयत्न है , इस श्रृंखला में मैं समकालीन विदुषी ‘मैत्रेयी’ की चर्चा कर रही हूँ.

नारी इस धरा की अनमोल रत्न है. नारी से ही यह धरा अवस्थित है. नारी शक्तिस्वरूपा है, इसका ही नाम प्रकृति है. इसे धरा के नाम से भी विभूषित किया गया है. त्याग, तपस्या , सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है नारी वह एक रूप में होते हुए भी अनेक रूपों में विराजित है. बेटी बनकर अवतरित होती हुई पत्नी बनकर संसार को आगे बढ़ाने का परम कर्तव्य तथा पूर्णता प्रदान करने की क्रिया वह ही पूर्ण करती है. वह पुरुष की शक्ति है.
भगवत प्राप्ति हेतु नारी पतिगतचित्ता तथा पतिगतप्राणा हो कर अपने क्षेत्र में ही अपने दृष्टिकोण से पति की सेवा ही नहीं अपनी ज्ञान-पिपासा को भी शांत करना चाहती हैं.
मिथिला के राजा जनक के दरबार में मैत्री नमक मंत्री हुआ करते थे जिनकी पुत्री मैत्रेयी ज्ञान पिपासु थीं. उन्हें भौतिक संपत्ति में कोई रूचि नहीं थी. वह एक सुविख्यात ब्रह्मवादिनी स्त्री थीं. वह ब्रह्मवाह के पुत्र याज्ञवल्क्य महर्षि की पत्नी थीं. महर्षि की दो पत्नियों में मैत्रेयी बड़ी थीं और कात्यायनी छोटी. वे विदुषी थीं. वह संसार से उपराम और ब्रह्मतत्व की जिज्ञासु थीं.
मैत्रेयी सुशीला , निश्छल , निःस्वार्थ, साध्वी, सहनशीला, चरित्र के निर्मलता के साथ ज्ञान रस में डूब कर अमरत्व प्राप्त करना चाहती थीं. अतः जब महर्षि ने सन्यास लेने की सोची तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर अपनी सम्पत्तियों (धनों) को दोनों पत्नियों के बीच बाँटने की मंशा बताई. ऐसा वह इसलिए चाहते थे की दोनों पत्नियों में आपसी विवाद न हो और सदा प्रेम बना रहे जिससे उन्हें निश्चिंतता पूर्वक सन्यास लेने का लाभ मिले.
मैत्रयी को तो सांसारिक वस्तुओं अर्थात भौतिक सुखों के प्रति लेश मात्र भी मोह नहीं था . उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की क्षुधा थी . वे अपनी पति की आध्यत्मिक ज्ञान का हिस्सा बनाना चाहती थीं. आध्यात्मिक ज्ञान की आकांक्षी थी. उनका सोचना था कि साक्षात् सुवर्णमय पृथ्वी प्राप्त होने पर भी अमरत्त्व प्राप्त नहीं हो सकता. अतः जिस संपत्ति से मुझे अमरता प्राप्त नहीं होगा , वह मेरे लिए व्यर्थ है, मैं क्या करुँगी? अतः प्रत्यक्ष में कहा – स्वामी यदि आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सम्पूर्ण धरा भी दे देंगे तो मैं उस से क्या अमरत्व प्राप्त कर सकती हूँ.
महर्षि याग्यवल्क्यअपनी बुद्धिमती पत्नी की बातें सुनकर विस्मित तथा प्रसन्न होते हुए कहा- “नहीं देवी ! यह कदापि संभव नहीं है,व्यर्थ आशा है.” ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी ने कहा – भगवन ! जिससे मुझे अमरत्व प्राप्त नहीं होगा व मेरे लिए तृण सदृश है. मेरे किस काम की ये भौतिक वस्तुएं? आपको ऐसी वस्तु निश्चित रूप से ज्ञात है जिसके समक्ष यह धन और ऐश्वर्य तुच्छ है. अतः आप आप इसका मोह नहीं करके त्याग करके जा रहे है. मैं भी उसीको जानना चाहती हूँ. ‘ यदेव भगवन वेद तदेव ब्रूहि’ जिस वस्तु को स्वामी अमरता का साधन मानते हैं. मैं जानती हूँ आत्मा का अध्ययन और मनन करने से ही संसार के प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है, अतः मुझे इसका ज्ञान दीजिये जिससे मेरी ज्ञान पिपासा तृप्त होगी. अपनी श्रेष्ठ भार्या की विद्वत्तापूर्ण तथा जिज्ञासापूर्ण बातें सुनकर महर्षि प्रसन्न हुए, और उन्होंने मैत्रेयी से कहा- तुम्हारी दिव्य दृष्टि तथा जिज्ञासा किसी असाधारण नारी में ही हो सकती है. धन्य हो तुम मैत्रेयी ! यह धरा भी धन्य है जिसने ऐसी रत्नगर्भा उत्पन्न किया है.
महर्षि ने विभिन्न युक्तियों से मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया . उन्होंने कहा यही अमृततत्त्व है . मैत्रेयी की आत्मज्ञान की प्यास , अपने आपको जानने की प्यास , महर्षि से उपदेशित हो कर वह नारी से नारायणी की श्रेणी में आ गयीं. महर्षि उन्हें उपदेश दे कर तप करने चले गए. वह श्रेष्ठ नारी के रूप में विख्यात हुईं. वह अमरत्व प्राप्त कर ब्रह्मवादिनी बन कर अनंत ब्रह्माण्ड में स्थान प्राप्त कर हर नारी के लिए आदर्श बन गयीं.
मैत्रेयी ने मैत्रेयी उपनिषद लिखा. मैत्रेयी उपनिषद में वह लिखती हैं -तपस्या से मनुष्य अच्छाइयों को प्राप्त करता है, अच्छाई से मस्तिष्क पर पकड़ बनती है, मस्तिष्क से स्वयं से साक्षात्कार होता है, और स्वयं से साक्षात्कार मुक्ति है. पुनः कहती हैं मस्तिष्क ही संसार है, हमें इसे शुद्ध करना चाहिए. मस्तिष्क ही हमें भविष्य के मार्गों का निर्धारण बताता है. और संसार के सभी रहस्यों को खोल देता है.
भगवान का न कोई प्रारम्भ है, न अन्त यह शुद्ध ज्योति है, न इसे पकड़ा जा सकता है न छोड़ा जा सकता है, न कोई चिन्ह होता है न कोई पहचान , यह शांत और सुदृढ़ होता है. यह न उजाला होता है न अँधेरा. यह अपरिवर्तनीय है, जिसका कोई झूठा रूप नहीं होता. यह ज्ञान है, स्वतंत्र है, सत्य है, सूक्ष्म है, जटिल है, आशीष का सागर है, व्यक्ति की अंतरात्मा है, और मैं है. अर्थात, मुझमें तुम हो, या तुम मुझमें हो. यही सत्य है और यही ज्ञान है अतः यही मुक्ति है और मोक्ष है.

ऐसी ब्रह्मवादिनी विदुषी, ज्ञान पिपासु, परार्थ जीवनधारिणी पतिपरायण,त्यागमयी आदर्श गृहणी को करबद्ध नमन.

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