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संस्कृत शिक्षा – शिक्षक और छात्र की कमी

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संस्कृत देव भाषा है, भूमण्डल की समस्त प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं में इसी अमृतमय भाषा को देव भाषा के अभिधान से अभिहित होने का गौरव प्राप्त है .सभी भाषा की जननी है यह , शुद्ध एवं परिष्कृत भाषा है हमारे देश की समस्त प्राचीन ज्ञान -भण्डार इसी भाषसे में सुरक्षित है.यह मधुर भाषा हमारे आचार -विचार सभ्यता तथा पूर्वजों के चिर संचित ज्ञान विज्ञान का भण्डार है यह भाषा सागर की तरह अथाह है , व्यापक है कि इसका साहित्य , मानव कितना भी डुबकी लगाये साहित्य का ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है .
वेद -उपनिषद् ,दर्शन ,रामायण ,गीता आदि महान ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही लिखित है .यास्क के निरुक्त ,पाणिनि की अष्टाध्यायी और पतञ्जलि के महाभाष्य के अध्ययन से यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि उनके काल में संस्कृत दैनिक व्यवहार की भाषा थी .यास्क और पाणिनि ने वेदों की भाषा से इसको पृथक करते हुए इसको भाषा अर्थात दैनिक व्यवहार की भाषा कहा है .इसकी लिपि देवनागरी भी समस्त लिपियों में अपना प्रमुख स्थान ठीक उसी तरह रखती है जिस तरह संस्कृत भाषा विश्व की भाषाओं में गौरवपूर्ण स्थान है .सारे संसार में सर्वोत्तम वैज्ञानिक एवं पूर्ण लिपि मानी जाती है ,प्राचीन काल में जन-साधारण में व्यवहृत भाषा को प्राकृत कहा जाता था ,पुरुष वर्ग ,विद्वान वर्ग संस्कृत भाषा में ही वार्तालाप करते थे . कालिदास ,भवभूति ,भास, भारवि ,मम्मट , विश्वनाथ आदि महान विभूति हुए हैं अपने उत्कृष्ट लेखन से और भी इस भाषा को अनुपम बना दिया है .कल आज और कल सर्वदा प्राण वायु की तरह हर पाठक को अपने मधुर रस में डुबोकर प्लावित करते रहेंगे . इस भाषा को पढ़ने वाले धार्मिक होते हैं ,सुसंस्कृत होते हैं ,भाषा इतनी मधुर है कि अध्ययन करनेवाले की वाणी स्वतः मधुर हो जाती है.पढ़ने वाले शिष्ट एवं शालीन हो जाते हैं .इसकी लोकप्रियता प्राचीन काल से आज तक अक्षुण्ण बानी हुई है .कला के क्षेत्र में भी अनुपम योगदान है इस साहित्य का .हमारे मन-मस्तिष्क को स्वस्थ -सुन्दर बनाये रखने के लिए भावों – विचारों का सन्तुलित भोजन सदृश प्रदान करता है .अपार संसार ,व्यापक विस्तार है संस्कृत भाषा का .
१९१८ में “आल इंडिया ओरिएण्टल कॉन्फ्रेंस ” की स्थापना हुई. इस कांफ्रेंस में दुनिया भर के विभिन्न क्षेत्र के विद्वान हर दो वर्षों के अंतराल में शामिल हो आपस में विद्वत चर्चा करते हैं. अब तक ४७ बार इस कांफ्रेंस का आयोजन हो चुका है. अगली बार इस कांफ्रेंस को करने की सौभाग्य उत्तराखंड को मिला है. हरिद्वार की पुण्य भूमि में यह पर्व २०१६ में मनाया जायेगा. यह विद्वानों का कुम्भ है.
यह एक ऐसा पर्व है जहाँ प्रकाण्ड विद्वानों के संग विद्वता की पहली सोपान पर रहने वालों के बीच ज्ञान का आदान प्रदान होता है. उन्हें सन्मार्ग को देखने का अवसर प्राप्त होता है. पण्डित परिषद में शास्त्रार्थ होता है और यहाँ भी ज्ञान का प्रसाद वितरण होता है. पण्डित परिषद पूर्णतया वैज्ञानिक संस्कृत भाषा में चलायी जाती है. यहाँ पुरानी धारणाओं , प्रचलित धारणाओं से लेकर आधुनिक धारणाओं पर विमर्श होता है. इतना ही नहीं यह एक ऐसा फोरम है जहाँ केवल पारम्परिक ज्ञानोंकी ही चर्चा ही नहीं होती , वस्तुतः प्रायोगिक परीक्षण किया जाता है की इनका आज के सन्दर्भ में क्या औचित्य है. अतः यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ अब भी संस्कृत को जीवित ही नहीं वरन इस की संरक्षण एवं सम्बर्धन हो, इसपर चिन्तन होता है.
कांफ्रेंस के माध्यम से विद्वान अपनी विद्वता से शोधकर्ता अपने शोध से सभी को लाभान्वित होने का अवसर प्रदान करते है. यहाँ ज्ञान पिपासा की तृप्ति होती है. अपने जीवन में उलझा मानव जब यहाँ इसमें सम्मिलित होता है तो ऐसी ज्ञान की अमृत धारा बहती है कि मानव ज्ञान रूपी सुधारस में आकण्ठ डूब जाता है. इन तीन दिनों में जो अमृत तत्व की प्राप्ति मिलती है वह इसमें सम्मिलित होने वाला मानव ही समझ सकता है. देश के हर राज्य में इसका सम्मलेन होता है. व्यक्ति के साथ-साथ जिस स्थान में यह गोष्ठी होती है वहां की रीति-रिवाज़ों , परिवेश,खान-पान ,संस्कृत से भी परिचित होने का अवसर लोगों को मिलता है.
आज यह संस्कृत भाषा विश्व के ४० देशों की २५६ विश्वविद्यालय में पढाई जाती है . देश के ३४ राज्यों में विषय के रूप में संस्कृत पढ़ाई जाती है. भारत में मात्र १४००० लोग संस्कृत बोलते हैं . मात्र १ लाख ९५ हज़ार छात्र संस्कृत पढ़ते हैं.
यह भाषा आज के समय में व्यवसायिक न होने से संभवतः छात्रों की संख्या कम है. वहीँ इसकी प्रचार न होने देने में जॉन मैकाले जैसे दमनकारी उद्देश्य रखने वालों का योगदान भी है तो आज भी भारत में केवल ३ संस्कृत विश्वविद्यालय हैं और वहां भी ७२ अध्यापकों की कमी है. संस्कृत के विद्वान लोग बेरोजगार बैठे हुए हैं लेकिन सरकार इन्हें अध्यापकों के रूप में न जाने क्यों और किस षडयन्त्र के तहत नियुक्त नहीं करती है. किसी भाषा को धर्म से देखने की नजरिया में परिवर्तन की अति आवश्यकता है. जिस भाषा में ज्ञान का अनन्त खान हो, भण्डार हो , उस भाषा को धर्म से जोड़कर पीछे केवल इस लिए धकेला जाये कि कहीं मेरा वोट बैंक कम न हो जाये , निश्चित रूप से अनुचित है. अतः भारत की पहचान को कायम रखना है और और विश्व में परचम लहराना है तो संस्कृत का इतना प्रचार प्रसार हो जिससे हर नागरिक ज्ञान लूट सके ज्ञानी बन सके . और इसकेलिए सरकार को अधिक से अधिक विश्वविद्यालय खोलने होंगे , उनमे विद्वानों को नियुक्त करना होगा और लोगों को इसकी अध्ययन करने हेतु उद्वेलित करना होगा.मात्र यह पश्चाताप, अफ़सोस करने से कि उस देश में संस्कृत की यह अवस्था है , उस देश के लोग शांति – पाठ संस्कृत में करते है , और हमारे यहाँ यह नहीं होता , लोग इसे सांप्रदायिक कहेंगे , इन बातों से कुछ नहीं होगा.
अच्छे काम , दूरदर्शी काम और क्रांति करने वालों को कष्ट तो सहना ही पड़ेगा,. यह ध्रुव सत्य है .

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