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बुआ (उपवन-११)

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चाय चढ़ाई ही थी की रसोई घर से देखा पेपरवाला पेपर लेकर आया है. पता नहीं क्यों मैं उत्कंठा के साथ कप में जल्दी से चाय उड़ेलकर अख़बार पढ़ने लगी . मानों मेरे किसी आत्मीय के विषय में लिखा हो . पढ़ते -पढ़ते मेरा ध्यान एक समाचार पर केंद्रित हो गया. मैं अपलक उसे देखने लगी . विश्वास ही नहीं हो रहा था इस समाचार पर.
शिशिर टॉप किया है आई आई टी में “तस्वीर के साथ” खबर छपी थी. बार-बार इस खबर को पढ़ रही थी तथा अतीत के पन्नों में खो गयी.
सगुन बुआ का एकलौता चिराग था शिशिर, बुआ का सपना था. जीवंतता बुआ का दूसरा नाम था. सदा जीवन्त रहती थी. गुलाब की पंखुड़ियों की तरह खिली-खिली .
ऑंखें बड़ी-बड़ी, मृगनयनी ही कहना ही उपयुक्त होगा. ऐसा प्रतीत होता था जैसे रति पुनः अवतरित हुईं हों. सर्वगुणसम्पन्ना अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी.
वल्यावस्था में ही पिता का देहांत हो गया था. अपनी माँ की आज्ञाकारिणी थी . नाम मात्र की संपत्ति उनके कृषक पिता छोड़ गए थे. पिता की साया न रहने से आभावग्रस्त होने के कारण असमय ही बड़ी हो गयीं थी.
जब हाथ में गुड़िया होनी चाहिए थी उस नाज़ुक घडी में गृहस्थी का भार,अत्यंत सहजता से उठा ली थीं क्योंकी उनकी माँ पति के देहावसान से विक्षिप्त सी हो गयी थी. चार भाई-बहनों में बुआ सबसे बड़ी थी . बहुत ही कठिनता से गृहस्थी की गाड़ी चल पा रही थी. कितनी ही रातें भूखे पेट सोना पड़ता था उन लोगों को. बुआ अपने हिस्से का खाना अपने छोटे भाई को खिला देती थी और स्वयं नमक के साथ पानी पी कर सो जाती थी. नमक के साथ पानी पीने से प्यास अधिक लगेगी तो भूख का अहसास नहीं होगा. अपने पड़ोस की गुणी भाभी से मधुबनी पेंटिंग , जनेऊ बनाना, डलिया बनाना, सिंक से रंग-बिरंगी आकृति की गुड़िया बनाना सीख कर घर के खर्च के साथ माँ का उपचार भी करवाने लगीं. उस ज़माने में इन चीजों की महत्ता अधिक नहीं थी , क्योंकि उस समय ये सब वस्तुएं बनाना हर घर की महिलाओं की रूचि होती थी.
मैं सोचती हूँ यदि यह घटना आज की होती तो आमदनी का अच्छा श्रोत होता . फिर भी थोड़ी राहत तो मिली थी उनको. कठिन परिस्थिति में भी सदैव मधुर मुस्कान उनके ओठों पर रहती थी. अर्थाभाव के कारण भाईयो की शिक्षा भी नहीं हो पा रही थी क्यों कि तन ढकने के लिए वस्त्र भी बहुत कठिनता से मिल पाता था तो अन्य खर्च की कल्पना तो कोसों दूर था. उनके सगे सम्बन्धी भी इस विपरीत परिस्थिति में उनसे मुहं मोड़ लिए थे. चाणक्य का यह कथन कि- “धनहीन का समाज में कोई मूल्य नहीं होता” अक्षरशः सत्य प्रतीत हो रहा था.
उनका बड़ा भाई संजय भी एक दूकान पर काम करने लगा था जिससे थोड़ी राहत मिली परिवार को .अब माँ भी स्वस्थ होने लगी थीं .एकबार पुनः परिवार की स्थिति सुधरने लगी .अब छोटे भाई का विद्यालय में दाखिला दिलवा दिया गया .परिवार में सभी प्रसन्न रहने लगे .
एकदिन बहुत तेज आंधी आई थी .बुआ की आँखों में धूल चला गया .जिसके कारण उनकी आँखें लाल हो गयी थी सूज भी गयी थी .यदा कदा आँखों में दर्द हो जाया करता था .उन्होंने ध्यान भी नहीं दिया .
समय अपनी गति से चल रहा था .शगुन बुआ के रिश्तेदार में किसी की शादी थी .बुआ को देखकर बुआ के ससुराल वालों ने उनकी सुंदरता तथा मधुर व्यवहार के कारण उनकी माँ से बुआ का हाथ मांग लिया. उनकी माँ सहर्ष तैयार हो गयी. कुछ दिनों बाद उनकी शादी भी हो गयी.
कालांतर में एक बच्चे की माँ भी बनी. अभाव में पलनेवाली बुआ राजरानी बन गयी. फूफाजी शिक्षक थे मृदु आचरण के थे ,बुआ को बहुत स्नेह देते थे .सुख की अवधि छोटी होती है , बुआ के साथ भी सुख की अवधि छोटी ही निकली .हुआ यह कि फूफाजी का विद्यालय में सीढ़ी चढ़ते समय पैर फिसलने से गिर गए जिस कारण उनका दोनों पैर में चोट लगने से अपंग सदृश हो गए .अभाव में भी प्रसन्न रहने वाली बुआ टूट सी गयीं .पति सेवा में तत्पर रहने लगीं. मृदु भाषी पति का आचरण परिवर्तित हो गया .उनका एकमात्र कार्य रह गया था बुआ में खामियाँ निकलना तथा उनपर चिल्लाना ,अपशब्द कहना आदि .श्रृंगार करना तो दूर बिंदी लगाने पर भी प्रतिबन्ध था .शक्की हो गए थे . जिस घर में शक का प्रवेश हो उस घर कि बर्बादी होनी निश्चित है. वह सदैव उदास एवं चिंतित रहने लगी. एक दिन फूफाजी के चिल्लाने पर वे उन्हें शांत करने लगी . इसी क्रम में उनके सर में भयंकर दर्द हुआ और वो बेहोश हो गयीं. चेतना में आने पर उनकी आँखें सदा सर्वदा के लिए ख़राब हो गयी. अर्थात वे अंधी हो गयीं. वर्षों पहले आँखों में धूल जाने के कारण या जीवन में नीरसता के कारण , पता नहीं क्या कारण था मृगनयनी सदा के लिए दृष्टिहीन हो गयी. इस दुःख को अधिक दिन सहन नहीं कर सकी तथा सदा सर्वदा के लिए इस लोक को छोड़ कर परलोकवासिनी हो गयी. कुछ वर्षों बाद फूफाजी का भी देहांत हो गया . उनका पुत्र शिशिर अनाथ हो गया था. उसकी बड़ी माँ अर्थात ताई ने परवरिश किया. अकस्मात फोन की घंटी से मेरी तन्द्रा भंग हो गयी. फोन शिशिर का ही था. उसका यह कहना- कि आपके भाई का चुनाव हो गया , बड़ी माँ की तपस्या रंग लायी , दीदी काश आज माँ भी होती . यह सुन कर मन व्यथित हो गया तथा साथ में यह भी अनुभव हुआ कि बुआ का ही तो अंश है शिशिर और उससे मिलने कि उत्कंठा तीव्र हो गयी.
शाम को उपवन में टहल रही थी तो अचानक फिर शिशिर का फ़ोन मेरे मोबाइल पर आया और उसने बताया कि कल वो मेरे से मिलने आ रहा है.
उपवन मेरे जीवन में रंग लेन में, मेरी इच्छाओं को पूर्ण करने में सदा सहायक रहा है. उपवन मेरे लिए विचार या सुविचार कहें को उत्पन्न करने में एक अलग भूमिका निभाता आ रहा है और शायद यही वजह है कि मैं उपवन से प्यार भी करती हूँ और उसका सदा आभारी रहती हूँ.
मैं अनुभव करती हूँ कि बुआ ने जिस तरह विपरीत परिस्थिति में रह कर भी एक सफल बेटी , पत्नी, और माँ कि भूमिका बखूबी निभा पायी वह प्रशंसा योग्य ही तो है. उनकी यह प्रशंसनीय भूमिका ने मेरी लेखनी को बाध्य किया कि इसको मैं सभी से बांटू , जिस का परिणाम यह सत्य घटना है. पात्रों के नाम ,स्थान तथा कुछ काल्पनिकता लेखक के लेखनी की स्वाभाविकता और आवश्यकता दोनों होता है अतः यह इसमें भी है.
डा. Rajani

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