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बाल-श्रमिक उन्मूलन

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आज समाचार पत्र में देखा कि ‘२०१५ का ऑक्सफ़ोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव’ के अनुसार ४४ करोड़ भारतीय जनता अति गरीबी की अवस्था में रहता है. ऐसी स्थिति में इन गरीबों के बच्चे स्वतः ही मजदूरी केलिए अग्रसर हो जाते हैं. गाँस (भोजन) , कपास और आवास, मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यक आवश्यकता है और ये न हों तो बूढ़े या बच्चे या जवान या पुरुष या स्त्री सभी पहले इनकी व्यवस्था की सोचेंगे . अतः इन मूलभूत आवश्यकताओं की कमी ही बालश्रमिक को जन्म देता है और प्रश्रय भी.
आज भी बाल श्रमिक विकराल समस्या बनी हुई है. यह अभिशाप की तरह ही है. हम किसी भी ढाबे पर जाएँ या होटल में जाएँ , छोटे-छोटे बच्चों को छोटी-छोटी हाथों से भोजन परोसते, चाय पानी देते बर्तन मांजते देखकर मैं दहल जाती हूँ. असहाय – सी देखती रह जाती हूँ उन बच्चों को . राही को या भोजन हेतु आनेवालों लोगों को शान से कहते हुए- ए छोटू पानी ला, चाय ला , मेज साफ कर या कुछ खाना मांगते हुए देखकर द्रवित हो जाती हूँ , उन बच्चों के मुस्कान में छिपे दर्द को अनुभव कर व्यथित हो जाती हूँ और सोचने पर विवश हो जाती हूँ -क्या हम नादान बच्चे से काम करवाकर पाप के भागीदार नहीं हो रहे हैं?
मुख्य समस्या है गरीबी एवं महंगाई . महंगाई की मार से दो जून की रोटी जुटाने के लिए अपने बच्चे को बालपन में ही काम पर लगा देने को मज़बूर है लोग . अपनी – अपनी जगह हर मानव बेबस हो कर अपने बच्चों को बाल -मजदुर बनाते हैं. प्राकृतिक आपदाएँ भी गरीबी का कारण है. कभी अत्यधिक वृष्टि ,बाढ़, तो कभी सूखा, अल्प वृष्टि , भूकम्प , तो अन्य आपदाएं . इन कारणों से उपज नहीं होती फलतः बच्चों से मजदूरी करने पर उनके माता-पिता विवश हो जाते है.
यह समस्या प्राचीन काल से ही चली आ रही है. कोई नयी बात नहीं है. कल कारखानों ,छोटी-छोटी फैक्ट्रियां आदि स्थानों पर बचपन खोते हुए , अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए , खोखली मुस्कान लिए हुए नादान बच्चे ही देखे जाते है. प्रातः कल समाचार पत्र, पत्रिका , सब्जियां, एवं फल बेचते हुए बच्चों को देख कर बेचैन हो जाती हूँ.
अमीर या धनवान के बच्चे सुख से शयन करते रहते हैं वहीँ सुबह-सुबह गरीब लाचार बच्चे इन धंधों में लग जाते है. क्या यह उचित है? क्या वे भी स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं ? प्रायशः बाल-श्रमिक गावं से या दूरस्थ क्षेत्र से होते है. मूल कारण गरीबी तो है ही अशिक्षा भी है. कुछ माता-पिता अशिक्षित होते हैं. अब खेतों में फसल तो सही होता नहीं है. फलतः वे अपने बच्चे को दिल्ली , मुंबई,चेन्नई आदि जगहों पर अपने तथा अपने परिवारों की उदर-पूर्ति हेतु भेज देते हैं. कुछ बच्चे कुसंगति में फंस कर घर से भाग जाते हैं. परिणाम स्वरूप मजदूरी करने पर विवश हो जाते हैं. कुसंगति के परिणामस्वरूप नशे के शिकार हो जाते है और इसकेलिए चोरी चकारी से लेकर जघन्य अपराध तक करने में लिप्त हो जाते है.
कुछ लोग इन निरपराध गरीबों को गाँव से शिक्षा एवं नौकरी का झांसा देकर शहर ले आते है और फिर बाल-मज़दूरी केलिए बाध्य कर देते हैं.
एक कारण यह भी है बाल मज़दूर आसानी से कम कीमत में उपलब्ध हो जाता है. बालश्रम कानूनन अपराध है. भारत में १४ वर्ष से काम आयु के बच्चों से काम लेना अपराध है . लेकिन यह केवल कागजों में है.
क्या होटल या ढाबेँ या कल-कारखानें में काम करते बच्चों को देख कर इन नेताओं को समझ में नहीं आता? या नज़र अंदाज करना ही इनका काम है? यह दृष्टिगत नहीं होता की कल का भविष्य आज जूठन साफ कर रहा है? यह अमानवीय व्यवहार हम भारतवासियों को नहीं दीखता?
स्वार्थ युग है . मात्र सबको अपनी परवाह है. अपने परिवार की परवाह है.
इस समस्या का एक कारण यह भी है सरकारी विद्यालय में उचित ढंग से अध्यापन न होना . आर्थिक रूप से कमजोर तबके के बच्चों पर शिक्षक या शिक्षिकाएँ ध्यान ही नहीं देते . उन्हें बंधी बँधायी वेतन चाहिए , बच्चे पढ़ें या नहीं पढ़ें इससे कोई प्रयोजन नहीं . फलतः बच्चे अशिक्षित ही रह जाते हैं और मजबूरी में बाल मजदूर ही बनते है ,और क्या भविष्य होगा उनका ! काम वाली बाई बच्चों का दाखिला तो सरकारी विद्यालय में करवा देती हैं, लेकिन अपने बच्चे या बच्चियों को नाममात्र को स्कूल भेजती हैं . जिन घरों में ये काम करती हैं उन मालकीनों के रहमों करम पर इनके बच्चे जाते हैं , कारण यह कि इन देवियों के घर में उत्सवों के कारण बाईयें अपने बच्चों को नहीं भेजती . कभी मैडमों के बच्चे का जन्म दिवस तो कभी किटी पार्टी तो कभी कुछ . वाह ! रे मानव अपने बच्चे के जन्म दिन के कारण अन्य बच्चों का दमन . ये महान आत्माएँ उन नादान बच्चों का शोषण करके केक चॉकलेट या मिठाइयाँ देकर समाज में दरिया दिल घोषित हो कर अपने कर्तव्यों का इतिश्री कर लेती हैं . मुझे कभी कभी -कभी ऐसा प्रतीत होता है क्या हम इसी समाज में रहते हैं ?मानव कहलाने योग्य हैं भी कि नहीं ?
हमारे नेताओं को तो इन समस्याओं से अधिक ध्यान एक दूसरे पर दोषारोपण ही करने में ही व्यतीत होता है और आनंद भी आता है.
स्वतंत्र और प्रजातान्त्रिक देश में राजधर्म होता है राजनीतिज्ञों का कि वे वहां के जनताओं कि कठिनायों को दूर करने वाली नीतियों का चयन कर बिधान बनाये और कागजों में न रक कर व्यवहारिक रूप से लगो हो इसका ध्यान रखे. अगर बाल मजदूरी किसी बाध्यता से हो रही है तो उस बाध्यता को समूल नष्ट करना सत्तासीन लोगों का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए . प्राकृतिक आपदाएं तो आती रहेंगी ,यह तो प्राकृतिक है. किसी के वष में नहीं है. लेकिन इन विषम परिस्थितयों के फलस्वरूप उत्पन्न गरीबी से निबटने का रास्ता तो सरकार को ही तय करना होगा.
सरकारी विद्यालयों में गरीबों के बच्चे इस उद्देश्य से जाते हैं कि वहाँ भोजन मिलेगा. उनका उद्देश्य अध्ययन नहीं होता है. सरकारी विद्यालयों में शिक्षक पढ़ाने का काम कम और अन्य सभी काम ज्यादा करते हैं.
सरकारी विद्यालयों कि स्थिति अगर सुधारनी है तो सरकार को सभी सरकारी नौकरों को बाध्य करना चाहिए कि उनके बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें. जब आई ए एस, आई पी एस तथा नेताओं के बच्चे इन सरकारी विद्यालयों में पढ़ेंगे तो अपने आप स्वतः ही इन स्कूलों की अवस्था सुधरेगी और संभवतः इनकी गुणवत्ता अति उच्चतम स्तर पर पहुँच जाएगी.
सरकार गैस सब्सिडी छोड़ने की बात तो करती है पर कभी उसने सरकारी विद्यालयों में सक्षम लोगों को अपने बच्चों को दाखिल करने हेतु क्यों आह्वान नहीं करती है ?
अतः अगर ‘बाल-श्रम’ का इस देश से उन्मूलन करना है तो सरकार को संवेदनशील होना पड़ेगा एवं जनताओं को भी समझना होगा कि जो इस देश का कल का कर्णधार है उन्हें शिक्षा दें न कि उनसे मजदूरी कराएं.

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