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माँ ही जीवन है

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माँ ही जीवन है .
इस धरा की सर्वोत्तम कृति है माँ .
माँ ही पहला शब्द है जो अपने आप में पूर्ण है
भगवान के रूप में हर घर में रहती है माँ .
सन्तान की आत्मा है माँ.
हर रिश्ते से ऊपर है माँ .
कठिन परिस्थिति से कवच की तरह रक्षा करती है माँ ,
जीवनदायिनी होती है माँ .
अपने बच्चों के भविष्य के लिए जीवन होम कर देती है माँ ,
सर्वस्व समर्पित कर देती है माँ .
मेरे लिए हर दिन मदर्स डे ` है माँ .
इस धरातल पर सबसे अनुपम है माँ
सबसे बड़ी शिक्षक है माँ .
पुत्र कुपुत्र हो सकता है ,लेकिन कुमाता नहीं हो सकती माँ .

कई भाषाओँ में माँ के लिए प्रयुक्त शब्द `म ` से होता है और ‘म’ से आरम्भ होने वाले शब्दों में मिठास ही होता है. इसलिए माँ बहुत मीठी होती है ,महान होती है ,मददगार होती है ,मुसीबत की सलाहकार होती है और सबसे बड़ी बात कि वह वह हमारी मित्र भी होती है .

मेरी माँ ममतामयी ,त्यागमयी एवं साध्वी तथा तपस्विनी है ,मेरे लिए प्रथम गुरु ,उपदेशक और सबसे बड़ी बात कि वह मेरी अंतरंग सखी है .माँ के बिना अस्तित्वहीन हैं हम . पिछले साल बहुत अस्वस्थ रह रही थी .हृदय -रोग से ग्रसित थी .तीन महीने पहले ओपन हार्ट सर्जरी हुआ था .जब सर्जरी के लिए ले जाया जा रहा था तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरी जिंदगी थम गयी हो ,साँस बन्द हो गयी हो .८ घंटे तक कैसे समय व्यतीत हुआ यह मैं ही जानती .ईश्वर को कोटिशः नमन कि उन्होंने मेरी माँ को जीवन दान दिया.डॉ . त्रेहान को अनेकशः धन्यवाद जिनके कारण माँ आज स्वस्थ है .माँ से लगाव तो था ही ,लेकिन अब तो माँ के बिना अधूरी हूँ ,माँ ही जीवन है .माँ उस स्वप्न की तरह है जिसके बिना यह संसार व्यर्थ है
उन महान महिलाओं को भी शतशः नमन जिन्होंने माँ सदृश स्नेह दिया – परदादी श्रीमती त्रिपुर सुंदरी ,दादी अम्बिका झा, नानी श्रीमती इन्द्रकला झा , बुआ स्व. इंदिरा ठाकुर ,एवं आंटी श्रीमती मंजू ठाकुर आदि ने सदैव मातृवत् स्नेह दिया है जो मेरे जीवन की अनमोल धरोहर है .
भारत माता और धरती माता को कोटिशः नमन जिनके कारण ही अस्तित्व है हमारा .

लाया जिसने इस धरा पर
उससे विलग कैसे हो पाऊँ मैं
दो बलिष्ठ भुजाओं में थमाकर
ईश्वर रूपी जनक से मिलाया
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उनसे विलग कैसे हो पाऊँ मैं
प्रथम शिक्षिका बनकर
गुरु गोविन्द में भेद बताया
बालमन के प्रश्नों को सुलझाया
निज रुधिर से सींचकर
जीवन जीने का राह दिखाया
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उससे कैसे विलग हो पाऊँ मैं
जनजीवन के हर रंगों से
जिसने परिचय करवाया
हर कठिन घडी में
जिसने साथ निभाया
आशीष देकर दुर्गम राह को
जिसने सुगम बनाया
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उससे कैसे विलग हो पाऊँ मैं
रक्त सम्बन्ध का बोध कराया
विश्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाया
गरिमामयी संबंधों का बोध कराया
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उससे कैसे विलग हो पाऊँ मैं
अपने जीवन का अमूल्य निधि लुटाकर
अपना सर्वस्व समर्पित कर
बेटी को अनुपम बनाया
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उससे कैसे विलग हो पाऊँ मैं
काँटों भरी जहाँ में
फूल की तरह संभाला जिसने
नफरत से भरी संसार में
स्नेह का पाठ पढ़ाया जिसने
जीवन को जन्नत बनाया जिसने
उस उपहार को कैसे भूल पाऊँ मैं
उससे कैसे विलग हो पाऊँ मैं
परायों को भी अपना बनाना सिखाया जिसने
“वसुधैव कुटुम्बकम” का सन्देश देकर
जीवन जीना सिखाया जिसने
उसके चरण की धूल बन पाऊँ मैं
जिसने लाया इस धरा पर
उस माँ से कैसे विलग हो पाऊँ मैं.

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