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आम आदमी पार्टी भी खास पार्टी

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आम आदमी पार्टी की आतंरिक कलह सड़क पर आ चुका है. इनकी कलह ने प्रमाणित कर दिया कि सारे राजनैतिक पार्टियां एक ही गलियारे के हैं. सब के सब पद लोलुप . अन्य दलों की तरह आम आदमी पार्टी में भी तिकड़म बाजी प्रारम्भ हो गया है.
दिल्ली की जनता आम आदमी पार्टी को कितने मनोयोग से अभूतपूर्व जीत दिलवाई थी बस यह सोच कर कि इस पार्टी में एकजुटता है कर्मठता है और कोई भी पद लोलुप नहीं है तथा ये भ्रष्टाचार को खत्म करेंगे एवं पारदर्शिता पर विश्वास करेंगे. लोगों को दीखता था कि ये हमारे बीच के है और ये बड़े-बड़े नेताओं कि तरह व्यवहार नहीं करेंगे. पहली बार जब आम आदमी पार्टी जीती और शपथग्रहण समारोह में इन सब को एक दूसरे के प्रति स्नेह देखकर लोगों को प्रतीत हुआ था कि संभवतः यही स्वराज की दस्तक है. गांधी के सपने पूरे होंगे. गांधी जी का स्वप्न साकार होगा और दिल्ली को स्वराज मिलेगा. उसकी प्रतिज्ञा समाज को नयी दिशा देगी. सीधा-सादा व्यक्तित्व ,सरल निष्कपट केजरीवाल के ओजस्वी भाषण के सभी कायल थे. सर्वत्र प्रसन्नता का वातावरण था. मात्र ४९ दिन में ही त्याग-पात्र देने से जनता निराश तो हुयी थी पर यह मानकर संतोष कर लिया कि पूर्ण बहुमत न होना मुख्य कारण है. और जब केजरीवाल ने जनता से अपनी समस्या बताई तो जनता ने पुनः उनपर विश्वास किया एवं पूर्ण बहुमत देकर विजयी बनाया. पूर्ण बहुमत देकर दिल्ली के जनता ने सोचा कि अब तो खड़ा उतरेगा आम आदमी पार्टी कि सरकार और जनता कि आशाएं पूरी होंगी . बिजली और पानी की मुख्य समस्या से जूझते आम आदमी को लगा कि उनकी आकांक्षाएं ,उनके सपने पूरे हो जायेंगे. अब दिल्ली जन्नत बन जायेगा. सम्पूर्ण भारत की जनता शायद दिल्ली में ही बसने आ जाये .
अभी ठीक से सांस भी नहीं ले पाया था कि इनमे अंतर्कलह शुरू हो गया. आम आदमी पार्टी की पुनः चर्चाएं होने लगी. और जनता को लगाने लगा कि अन्य दलों कि तरह यह आम आदमी पार्टी भी है. इस दाल को जनता परिवर्तित राजनैतिक आंदोलन करने वाली दल के रूप में देख रहे थे.जनता के उम्मीद पर ये खड़े नहीं हो पा रहे हैं .
मुख्य गलती तो केजरीवालजी की है .वे दल को संगठित करने में असफल रहे . कैसे कोई भरोसा करेगा जब इतनी जल्दी सदस्य असंतुष्ट हो रहे हैं कितनी मेहनत की थी सब ने .परिवार की तरह समझना चाहिए .न कि निकालकर . अन्य पार्टी की तरह इसमें भी सर्वेसर्वा स्वयं ही हैं. उन्हें समझना चाहिए , सब को ले कर चलना चाहिए और कान का कच्चा भी नहीं होना चाहिए. उनका यह कहना की अन्य पार्टी में ये सब होते तो पीछे लात मार कर निकाल दिए जाते -निंदनीय है. यह कहना भी की “अलग पार्टी बना लेंगे, टूटना पसंद करेंगे झुकना नहीं” यह कहना भी सर्वथा अनुपयुक्त है. आप किसके सामने झुकेंगे, अपने ही असंतुष्ट सहयोगी से.
योगेन्द्र यादव का चुनाव से पहले की कठिन परिश्रम हम नहीं भूल पाये तो केजरीवालजी कैसे भूल रहे हैं? कितनी कठिन परिस्थिति में प्रशांत भूषण ,अजीत झा आदि लोगों ने उनका साथ दिया था . उन्हें निकाल कर पार्टी ने गलत किया है.
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण आदि लोगों से भी भूल हुई है. उन्हें भी संयम से काम लेना चाहिए था. पार्टी के भीतर ही सब कुछ सुलझा लेना चाहिए था. मिडिया में इस तरह सब कुछ नहीं आना चाहिए था.
खैर जो भी हो यह तो स्पष्ट हो ही गया की कोई भी पार्टी हो और कोई भी नेता हो कुर्सी मिलने से पहले कुछ और होते है और मिलने के बाद कुछ और. अर्थात झूठे वादे और जनता को भ्रमित करना प्रमुख उद्देश्य होता है. सब एक ही थाली के चट्टे -बट्टे है. पद मिलते ही सारा सिद्धांत धराशायी हो जाता है.
आम आदमी पार्टी ने बहुत जल्दी साबित कर दिया कि यह आम आदमी पार्टी न होकर अब चुनाव के बाद तथा पूर्ण बहुमत पा कर सरकार बनाकर सत्ताधीन हो ने के बाद “खास पार्टी” बन गयी है.

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