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बसंत

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———१———-
अजीब अनुभूति होता है
हर पल हर क्षण
हर आहट पर
मन आकुल /व्याकुल(व्यथित) होता है
हर सांस
हर धड़कन में
बस वही बसा हो जैसे
वह है कौन?
ज्ञात नहीं
पता नहीं
कही वह बसंत तो नहीं?

उसे क्या कहूँ
भाई,मित्र,हमदर्द या कुछ और?
देवदूत तो नहीं?
नीरस जीवन में
सरसता का बीज बो रहा वह
वह है कौन
कहीं वो बसंत ही तो नहीं?

वह सच है
या छलावा
उसकी हर आहट पर
राह तकती हूँ
शांत झील में
जैसे कंकड़ उछाल गया हो
ताल की शांति भंग हो गया हो
न जीवित रही न मर पाई
आखिर वह है कौन?
कहीं वो बसंत ही तो नहीं?

ईश्वर रचित लीला कहूँ
या ईश्वर प्रदत्त नसीब
सुने जीवन में बहार बन आया है
स्वयं बेखबर हूँ
होश गुम है
मदहोश हूँ मैं मिलन के बाद
ज्ञात नहीं वह कौन है
कहीं वो बसंत ही तो नहीं?

अस्तित्वविहीन होकर
अमन लुटाकर
उस नासमझ को
समझाने की आश में
बटोही बनी फिर रही हूँ
जिसे न रास्ते की सुध है
न दिशा है
न राह का ज्ञान
फिर , मन की बात कैसे समझाऊँ
पता नहीं वह कौन है
कहीं वो बसंत ही तो नहीं?

शरद की आँचल के अंतिम कोर से
शर्द हवा की झोकें
कंपकंपा देती है तन को
उसके आने की दस्तक से
मधुर अहसास हो आता है
उत्फुल्ल होता मन
मधुमास का स्पर्श देता है
आखिर वह है कौन
कहीं वो बसंत ही तो नहीं?

बसंत बयार बरसाती आहट
सर-सर पवन भर -भर वात
पंखुरी पल्लवित किसलय बनता पात
कभी ओस कभी झंझाबात
कभी गर्मी कभी बरसात
कहीं यही बसंत तो नहीं?

——–2————
शीतल धरा को मुक्त करता
हर जीव को ठिठुरन से राहत देता
न कोई नाम
न कोई रंग
आँख मिचौली सा
रिश्तों में मिठास घोलता
बसंत संज्ञा से विभूषित
बसंत ऋतु आ ही गया

मनमोहक उत्सव सदृश
हर रिश्तों में मिठास घोलता
पीत रंग पीली सरसों सा
सुवासित धरा को करता
बसंत ऋतु आ ही गया

प्रेमी युगल को स्नेह तंतु सा बांधता
नेह का सन्देश देता
जन-जन को प्रेम रस में डुबोता
मधुमास आ ही गया

कल-कल करती
छन-छन करती
नवविवाहिता की नुपुर सदृश
वातावरण को नवजीवन देता
ऋतुपति आ ही गया

अमृत सा उपहार देता
जन-मानस को पीयूष पान कराता
बसंत ऋतु आ ही गया
तम को मिटाकर
सुनसान धरा को
रजनी के जीवन में आलोक लाता
ऋतुराज आ ही गया .

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