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एकता का सन्देश देने पर भी त्रास खाता है

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जाने क्यों मेरा मन चीत्कार कर उठता है
जाने क्यों मेरा मन तड़पता है
राहगीरों से मिन्नतें करते हुए
याचकों को देख कर

मन व्याकुल हो उठता है
मैं व्यथित हो जाती हूँ
सड़क किनारे
गम की चादर ओढ़े हुए
याचकों को देख कर
मैं दुखी क्यों हो जाती हूँ?

मेरा मन दहल उठता है
लिपटे हुए चिथड़ों की गठरी से
झांकता हुआ ख्वाब को देख कर

खुरदुरे हाथों से याचना करना
मानव द्वारा दुत्कारा जाना
अपमान की असह्य घूंट पीना
पुनः पुनः हाथ फैलाना
दृश्यांकन से मन व्यथित हो उठता है

किसी पथिक का
झुंझलाकर कुछ चिल्लर फेंक देना
किसी का
तरस खा कर, कुछ दे देना
किसी का गाली देकर
खुदरे पैसे फेंक देना
किसी का क्रोधित हो कर
अपमानजनक शब्द का प्रयोग करना
देख सुन कर बेचैन क्यों हो जाती हूँ?

किसी का पैर नहीं
किसी का हाथ नहीं
किसी का बैसाखी के सहारे
तिल-तिल घिसटना
बेबस हो कर झोली फैलाना
और फिर राहगीरों द्वारा दुत्कारा जाना
देख कर क्यों मेरा मन चीत्कार कर उठता है?

नज़र उठता है नभ की ओर
प्रार्थी होती हूँ ईश्वर से
तरस खा इन पर
सपने इनके भी तू पूरी कर

क्योंकि
कभी मंदिर
तो कभी चर्च
कभी मस्जिद
तो कभी कहीं और
जाति – भेद
कौम की भाव से अनजान
याचक ये बिना पूछे और बिना जाने
याचना धर्म को निभाता है
एकता का सन्देश देने पर भी त्रास खाता है
देख कर मन व्यथित क्यों होता है?

याचक तो याचना से पहले मृत होता है
तभी याचना करता है
लेकिन याचक को निराश करने वाले तो
पुनः पुनः मरता रहता है!
तब क्यों मेरा मन
व्यथित होता है?????.,

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