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स्त्री -अपराध-समाज और सरकार.

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समाचारपत्र पढ़नेसे पहले मन आशंकित रहता है कि आज फिर पता नहीं कितनी महिला या बच्ची दुष्कर्म की शिकार हो गयी हों और सारे राष्ट्रीय एवं स्थानीय अख़बार के मुख -पृष्ठ पर इन भयानक खबरों को प्रकाशित किया गया हो.
दूरदर्शन पर समाचार देखने से पहले दिल दहलता रहता है की कोई किसी नर पिशाच की शिकार तो नहीं हुई. क्योंकि शायद ही कोई ऐसा दिन हो जिस दिन हमारे देश की बहन -बेटी किसी न किसी दरिंदों की भेंट न चढ़ी हों.
हम कहाँ जा रहे हैं? हमारी संस्कृति क्यों लुप्त होती जा रही है? मानवता क्यों समाप्त होती जा रही है? अभी कुछ दिन पहले ही उत्तरप्रदेश में हमारी बेटियां दरिंदों की कुकृत्य की भेंट चढ़ी हैं. अभी भी मानस पटल पर उन बच्चियों को वृक्ष से लटकते हुए मासूम चेहरा अंकित है. कितनी प्रताड़ित हुई होंगी की उन्हें अपनी जीवन लीला समाप्त करनी पड़ी या (!) समाप्त कर दी गयी.
निर्भया कांड में जनाक्रोश के कारण सरकार ने ठोस कदम उठाया भी था लेकिन परिणाम ज़ीरो ही रहा. कुछ करेक्टिव एक्शन हुए लेकिन कोई प्रिवेंटिव एक्शन नहीं हुआ. फिर स्थिति यथावत रहना लाज़मी है. किसी भी दुर्घटना का अंत तभी हो सकता है जब दोनों एक्शन लागू हो.
क्यों नहीं जुवेनाइल को फांसी मिले? कुकर्म करने वक़्त वयस्क था तभी तो ऐसा कर पाया, जब वयस्क है तो सजा भी वयस्कों की तरह होनी ही चाहिए. उसे अगर दण्डित नहीं किया गया तो वह इस तरह का अपराध पुनः दोहरा सकता है. आखिर कब तक हमारी बहन-बेटियाँ विभत्स कृत्य को सहन करने केलिए मज़बूर रहेंगी?
इस सन्दर्भ में एक और समाचार को मैं इस लिए उल्लेखित करना चाहती हूँ ki कैसे कोई महिला अपने सगे अपराधी केलिए माफ़ी चाहती hai. वह स्वयं महिला हैं और एक महिला की दर्द को अधिक समझ सकती हैं , लेकिन जब अपराधी पति ही हो और अपराध दूसरे महिलाओं के साथ हुआ हो तो वह अपराध की भीषणता को नकारना चाहती है. निठारी कांड के अपराधी सुरेन्द्र कोली की क्षमा याचिका ख़ारिज होने से उसकी पत्नी शांति का यह कहना की “पहले ही बड़ी साजिश का शिकार हो गया इसलिए न्याय की कोई उम्मीद बांकी नहीं दिख रही ” पढ़कर मन विचलित हो गया. इतने बड़े नर-पिशाच की पत्नी कैसे यह बयान दे पायी ! घृणित कार्य करने वाला कोई भी हो बेटा हो,पति हो, भाई हो या कोई भी हो क्षमा नहीं करनी चाहिए बल्कि क्षमा की अपेक्षा न रख कर उसे दण्डित करने की दिशा में आगे आ कर सहयोग करनी चाहिए.
हर गुनहगार किसी न किसी का सगा होता है. किसी का पति ,किसी का बाप, किसी का भाई इत्यादि. अब अगर हर महिला केवल यह सोचे की दूसरे को सजा मिले लेकिन मेरे सगे को नहीं तो क्या अपराध का कभी उन्मूलन हो सकता है? शायद इसी लिए किसी ने कहा होगा की “महिला ही महिला की सबसे बड़ी दुश्मन है.”
हमारे नेता लोग कब तक चुप रहेंगे? कितने विश्वास से हम उन्हें चुनते हैं ! आखिर ५० % मत तो महिलाओं का ही होता है. और महिलाएं ही असुरक्षित हैं. महिला जननी है, उन नेताओं की भी और उन दरिंदों की भी. दरिंदों से कोई सकारात्मक अपेक्षा नहीं हो सकता लेकिन नेताओं को तो चुनते ही इसीलिए हैं कि वे हमें सुरक्षित समाज प्रदान करें.
मुझे ईश्वर से भी शिकायत है की वे क्यों मानव के सरल रूप में ही दरिंदों का भी स्थापना करते हैं . अगर दरिंदे पुराने ज़माने की दादी-नानियों की कहानी की राक्षस की तरह होता तो शायद हर माँ दरिंदे के जन्म लेते ही मार डालतीं , उसे पनपने ही नहीं देती और तब शायद यह कहावत भी झूठी हो जाती की “महिलाये ही महिलाओं की दुश्मन होती हैं”. इस कलंक को शायद महिलाओं को न ढोना पड़ता.
किस पर विश्वास करे? हर क्षण महिलायें दहशत में रहती है? पता नहीं कौन दरिंदा है कौन भला मानस. पहचानना कठिन है.
इस आर्थिक युग में एकल परिवार में रहना मज़बूरी हो गया है. माँ -बाप दोनों घर से बहार अपने -अपने कार्य के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं और बच्चे अकेले घर में दूरदर्शन पर आने वाले हिंसात्मक सीरियल देखते रहते है. आखिर असर तो पड़ेगा ही. और कहीं न कहीं इसका उत्सर्जन भी होगा ही.
कही न कहीं बेटियों को कोख में ही मार डालने का यह भी कारण तो नहीं है कि अगर बेटी पैदा हुई तो पता नहीं कैसे – कैसे दिन देखने पड़े?
सरकार के साथ-साथ समाज को भी सजग होना पड़ेगा. इस कैंसर से भी घातक बीमारी का समाधान ढूंढना ही पड़ेगा. मेरी दृष्टि में इस बीमारी का बहुत से कारण है और कुछ मैं यहाँ उल्लेख कराती हूँ.
१. शौचालय – इसकी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. शौचालय के आभाव में अभी भी भारत की बहुतायत महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है. और इसकेलिए महिलाएं रात के अँधेरे में सुन-सान जगहों पर जाने को मज़बूर होती है. और दरिंदों को मौका मिल जाता है. सरकार भले ही गैस पर y डीजल पर सब्सिडी न दे ,लैपटॉप न बाँटे , रंगीन टी.वी. न दे लेकिन कुछ ऐसा करे की हर घर में शौचालय जरूर हो. घर के साथ शौचालय इतना अनिवार्य हो जितना रसोई घर. बिना शौचालय का घर ही न हो.
२. शिक्षा- महिला शिक्षा के साथ साथ स्कूल में आत्म-रक्षा के गुर भी सिखाये जाएँ. शिक्षा केवल रोजगारपरक ही न हों बल्कि कर्म और कुकर्म के बीच का फ़ासला समझाने वाला भी हो अर्थात सर्वांगीण विकासोन्मुखी हो. सामाजिकता से परे सुकर्म की परिभाषा के बिना शिक्षा केवल रोजगार के लिए भोकेसनल शिक्षा , सामाजिक स्तर को ऊँचा नहीं उठा सकता. और यह शिक्षा अर्थोपार्जन केलिए तो हो सकता है लेकिन सुकर्म के लिए अर्थहीन रहने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
३. भारतीय मूल्यों का सम्मान- विदेशों की चलन को अँधा-धुंध नक़ल करने पर पाबन्दी होना जरूरी है. लिव-इन रिलेसन भारतीय समाज केलिए घातक हो रहा है. सरकार एवं समाजशास्त्रियों को इस विषयपर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.
४. आंकड़ों का डाटाबेस – विद्यालय-महाविद्यालय एवं कार्यालयों में कार्य- रत महिलाओं का डाटाबेस सरकार के पास हों और उन जगहों की, जहाँ महिलाओं का आवा-गमन ज्यादा है, वहां सुरक्षा की पुख्ता इंतजाम हो.
५. सजा – दरिंदों को अपराधियों को ऐसी सजा देनी चाहिए जिससे अपराध करने वालों की रूह काँप जाये. अपराध नियंत्रण हेतु कभी-कभी क्रूरतापूर्ण सजा भी शायद गलत नहीं होगा. और ऐसी अपराध जो समाज में कैंसर के रूप में फ़ैल रहा हो उस अपराध को नियंत्रण करने हेतु बर्बरता की आवश्यकता पड़े तो वह भी शायद अनुचित नहीं होगा.
परवरिश – परिवार में भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए. यदि हर परिवार में बाल्यावस्था से ही ध्यान दिया जायेगा तो इस अपराध में कमी आएगी. बेटे-बेटी में भेद न हो, यदि बेटे में थोड़ी भी गलत प्रबृति नज़र आये तो उसका समाधान खोजकर उपचार करवाना चाहिए. माता-पिता को उचित ढंग से परवरिश करना चाहिए और बच्चों में भारतीय संस्कार इस तरह भरना चाहिए कि उनमें किसी तरह की कुंठा न पनपे. कुंठित व्यक्ति ही इस तरह का कुकृत्य करता है.
हम सब मिलकर एक-एक सधे कदमों से आगे बढ़कर इस कैंसर रूपी बीमारी से निजात पा सकते हैं.

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