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मष्तिष्क में “माँ शब्द” आते ही हृदय का हर कोना आनंदानुभूति से ओत-प्रोत हो जाता है. मानव किसी भी आयु का हो माँ शब्द से ही अपने को सुरक्षित अनुभव करता है. माँ उस कवच की तरह होती है जिसमें मानव संसार के हर विपत्ति हर बाधा से स्वयमेव मुक्त हो जाता है. ममता का दूसरा रूप माँ ही तो है. वह वृक्ष जो अपनी छाया बनकर धूप गर्मीं बारिश से रक्षा कराती है माँ उसी परोपकारी वृक्ष की तरह है. जिस तरह ईंट को जोड़कर घर बनता है उसी तरह माँ अपने बच्चे को समाज से जोड़ती है. उस पर्वत की तरह है जो हर दुःख-सुख में चट्टान की तरह अडिग रहती है. माँ उस बर्फ की तरह है जो संतान के पालन-पोषण में स्वयं पिघलती रहती है. वह उस शिक्षक की तरह शिक्षित करती है जिसके ज्ञान रूपी प्रकाश से उसकी संतान आलोकित होती रहती है. उस विधाता की तरह जो संतान को निर्मित करती है. हम सब ने भगवान को तो नहीं देखा है बस उनके बारे में सुना है. ईश्वर की अनुपम कृति है माँ. ईश्वर सभी के पास तो नहीं जा सकते थे अतः उन्होंने माँ को बनाया और सभी के पास भेज दिया. जिससे हर घर में माँ रूपी देवी के होने से मानव सुरक्षित रहता है. जिस तरह धरती माता मानव का भार वहन करती है , माँ भी उन्हीं की तरह सहनशील है जो संतान का भार उठाती है. शायद इसीलिए कहा गया है, माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा होता है. यह सभी गुण मेरी माँ में है.
माँ इतने स्नेह से अपने रक्त की बून्द-बून्द से सींच कर बच्चों को पालती है, समाज में पहचान दिलाती है. अपने जीवन को होम कर देती है उसी माँ को जब जलील होते देखती हूँ तो ह्रदय द्रवित हो जाता है.
एक परिवार है जिस घर में स्त्रियों की कद्र न के बराबर होती है. उस घर में एक बहू व्याह कर आई , जो आदर पाना तो दूर उपेक्षिता बनकर रह गयी थी . समयनुसार दो बच्चों की माँ बनी. सारी कटुता भूल कर वह बच्चों के परवरिश में अपने आप को भूल सी गयी. अपमानित होने पर भी बच्चों का मुहं देख कर शिवजी की तरह विष पी कर बच्चों को अमृत पिलाती रही. इस आशा में की बच्चे मेरी विवशता को समझेंगे. समय व्यतीत होता गया और बच्चे बड़े हो गए. दोनों बेटे का विवाह भी हो गया. अपने जीवन में बच्चे व्यस्त हो गए. पुनः माँ अकेली ही रह गयी . पूर्ण मनोयोग से निरंतर वह सेवा करती रही. जब शरीर जर्जर हो गया , बेबस हो गयी तो तृषित नयन से जब बच्चों को देखा तो दोनों ने आँखें मोड़ ली. एक दूसरे को कहने लगे तुम अपने पास रख लो तो तुम अपने पास रख लो. निरीह माँ विवश हो कर देखती रही. सम्पूर्ण जीवन होम करने वाली माता ने कहा – कोई बात नहीं बेटे ईश्वर हैं न ,तुम दोनों सुखी रहो. आशीर्वाद देने वाला हाथ पुनः आशीर्वाद देने केलिए उठ गया . अश्रु पूरित नेत्र से शून्य में निहारने लगी.
दादी ने एक घटना का जिक्र किया था कि किसी गांव में एक परिवार रहता था दो भाई रहते थे उनलोगों की परवरिश उनकी मौसी ने किया था . मौसी अपने संतान की तरह स्नेह देती थी दोनों में एक संतानहीन था एक को एक बेटी थी पता नहीं क्या हुआ दोनों मिलकर मौसी की हत्या कर दी गांव वालों ने इस बात को उजागर नहीं होने दिया . पता नहीं उस अबला की आह था या दैवी प्रकोप १२ साल तक उस गांव में बारिश नहीं हुई जबकि पड़ोस के गांव में होती थी. ऐसी सच्ची होती है माँ .
इस तरह की बहुत सारी माओं की दर्द भरी बातें इस पावन अवसर पर याद आ रही है. सबका उल्लेख करना असंभव है. जन्म देनेवाली माँ की ऐसी दुर्दशा दयनीय अवस्था को याद कर मन व्यथित हो जाता है. लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं ऐसे सपूतों (कुपुत्र) का . बस ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं कि किसी भी माँ कि ऐसी दशा न हो.
बहुत ऐसी भी माँ की यादें आती है जिनका पुत्र सपूत है. चलिए इस पवित्र दिवस पर प्रण लें -अपनी माँ के साथ-साथ आस-पड़ोस या देश की हर माता को सम्मान देंगें. प्रयत्न करेंगे कि यदि पड़ोस में ऐसा निर्मम परिवार हो तो उन्हें समझने का प्रयत्न करेंगे नहीं तो माताओं को वृद्धाश्रम जाने की ओर उन्मुख करेंगे जिससे वे स्वार्थमय वातावरण से निकालकर अपने सदृश लोगों के मध्य रहकर अपना शेष जीवन को जीवन्त बनाकर उन्मुक्त हवा में सांस ले सकेंगी.
ऐसी सभी त्यागमूर्ति माता के चरणों में कोटि-कोटि नमन.
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