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आलोचना , समालोचना या कटु आलोचना?

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हमारे देश की बिडम्बना है आलोचना करके संतुष्ट होना. समालोचनानहीं बल्कि कटु आलोचना करने में हम बड़प्पन समझते हैं, अक्सर हम सकारात्मक आलोचक नहीं होते वरन नकारात्मकलोचना करना हमारा फैशन बनता जा रहा है. अच्छा भी करें तो भी प्रशंसा से अधिक आलोचना का ही शिकार होना पड़ता है. कुछ भी करें आलोचना तो होनी ही है.
तत्काल ही उदाहरण देखें – देश की एक सशक्त राजनैतिक दल ने अल्पमत प्राप्त किया हुआ दूसरे दल को सामाजिक हित के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया. लोगों ने आलोचना आरम्भ कर दी कि उक्त दल के पास कोई उपाय ही नहीं था. इतना ही नहीं समर्थित दल ने तो आलोचना कि पराकाष्ठा लांघते हुए यह भी कह डाला – कि समर्थन देने वाला पछतायेगा . देखिये समर्थन भी लेते हैं आँखे भी दिखाते हैं. आलोचना नहीं करते , समालोचना भी नहीं बल्कि कटु आलोचना करते हैं.
मुझे नेता लोगों को एक दूसरे की आलोचना करते हुए देखकर अत्यधिक आस्चर्य लगता है . समाज जिनका चुनाव करती है, देश की जिम्मेवारी सौंपती है. मानव समुदाय में श्रेष्ठ मानकर उनको ससम्मान कुर्सी सौंपती है, उनसे देश की भलाई के लिए उम्मीद रखती है, सम्मान देकर उनका विश्वास करती है. वही नेता लोग जब एक दूसरे की आलोचना करते हैं, एक पार्टी दूसरे पार्टी को दोषी मानती है, दोषारोपण करते हुए, छींटाकशी करते हुए देखकर आहात होती हूँ. उनकी सोच को देखकर,सुनकर मैं ही क्या सम्पूर्ण जनता व्यथित होती होगी और सोचने पर विवश होती होगी क्या यही हमारे विश्वास का फल है? कोई किसी को चिड़िया तो कोई किसी को शेर, कोई चोर तो कोई किसी को भ्रष्टाचारी, तो किसी को लुटेरा. यहाँ तक की एक दूसरे का चरित्र हनन करने में भी आप्पति का अनुभव नहीं होता.
देश को, राज्य को हम सौंप कर हम निश्चिन्त होने का प्रयत्न करते हैं, और सोचते हैं हमारा देश उन्नति करेगा, हमारे बच्चे बेरोजगार नहीं रहेंगे, श्रेष्ठतम देशों में हमारे देश का नाम अग्रगण्य रहेगा , हम सर्वत्र विजय -पताका लहराएंगे. ऐसे में ख्वाव को टूटते देखकर अर्थात नेता लोगों को एक दूसरे पर आरोप मढ़ते देखकर भय लगता है. यदि ये शासन करना चाहते हैं , अच्छा काम करके, अपना कर्त्तव्य को समझकर एक दूसरे की सम्मान करके न की निचा दिखाकर आगे बढ़ें . अगर इनकी सोच उच्च होगी तो हमारा भविष्य स्वतः उज्जवल हो जायेगा . हमारा समाज उन्हीं लोगों का अनुकरण करता है.किसी दूसरे की निंदा या आलोचना करने से पहले मानव को अपने भीतर झांककर देख लेना चाहिए.

डा . राजेंद्र प्रसाद , लाल बहादुर शास्त्री , जवाहर लाल नेहरू , श्रीमती इंदिरा गांधी, इत्यादि महान नेताओं की सोच पर दृष्टिपात करने पर उनकी श्रेष्ठ सोच, तथा आज की स्थिति को देखकर मन द्रवित हो जाता है.
क्या ये गांधी जी के सपनों को धूमिल नहीं कर रहे हैं? जिस देश में गांधीजी ने अंग्रेजों के विरूद्ध भी अपशब्द नहीं कहा था उस देश में आज एक दूसरे के विरूद्ध मिथ्या भाषण, अपनों के प्रति ही अविश्वास, दोषारोपण करना अपनी शान समझते हैं. यह तमाशा देखकर बैकुंठ में गांधीजी भी व्यथित होंगें कि ‘क्या इन्हीं लोगों के लिए इतना संघर्ष किया, देश को स्वतंत्र इन्हीं लोगों के लिए करवाया जो अपनों के विरूद्ध षडयंत्र कर रहें हैं, लड़ रहे हैं, ठेस पहुंचा रहे हैं, एक दूसरे को अपमानित कर रहे हैं. स्वतंत्रता सेनानियों के आत्मा को तभी शांति मिल सकती है जब आलोचना समालोचना तो हो लेकिन कटु आलोचना न हो. मतभेद सामान्य है , वैचारिक विभिन्नता भी ग्राह्य है लेकिन जनसाधारण के हित में होनेवाले न्यायपूर्ण कार्य का भी आलोचना शायद अनुचित है.

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