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बुजुर्गों की स्थिति

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आज बुजुर्ग की समस्या अकल्पनीय है. वृद्धावस्था अभिशाप सदृश होती जा रही है. उनका जीवनयापन बहुत ही कठिन होता जा रहा है. कोई चलने में असमर्थ तो कोई अपाहिज सदृश बेड को ही अपनी नियति मानकर जीवन निर्वाह कर रहे हैं. यदि वे उच्च वर्गीय हैं तो उनकी संतान ने नर्स या अटेंडेंट की व्यवस्था कर दिया है. उन लोगों का जीवन भौतिक सुख- सुविधा से परिपूर्ण हो , फिर भी समय किस तरह व्यतीत करें इसकी समस्या उन्हें आहत करती है. आँखें साथ नहीं देती जिसके कारण वे पढ़ नहीं पाते, दूरदर्शन पर कार्यक्रम भी देखना कठिन होता है. आखिर करें तो करें क्या ? जिन बच्चों के लालन-पालन में उनका सारा जीवन व्यतीत हो गया वे बच्चे अपने परिवार में ही व्यस्त हैं. कोई विदेश में तो कोई अपने देश में ही व्यस्त हैं. कुछ मज़बूरीवश लाचार हैं तो कुछ माता-पिता के कर्त्तव्य से विमुख. बेचारे बुजुर्गों का शेष जीवन अधीरता या व्याकुलता से प्रतीक्षारत घर के दहलीज़ पर टक-टकी बाँधे रहतें हैं कि कोई तो आये जिससे दो बातें कर लें. समस्या यह है लोग इन बुजुर्गों के पास बैठना या बातें करना समय की र्बादी समझते हैं . उन्हें यह समझ नहीं आती की जीवन जीने की कला, कितनी महत्वपूर्ण बातें जो बुजुर्गों से सीखी जा सकती है, वे उन से वंचित रह जाते हैं. समाज का रूप ही परिवर्तित हो रहा है. दादी-नानी की कथा लुप्तप्राय हो गई है क्योंकि नर्सरी से जो बोझ बच्चों पर डाल दी जाती है,बच्चे उसमें दब से गए हैं. उन्हें वक्त कहाँ कि दादी-नानी की कथा या सीख सुने. मुझे याद है मेरे पड़ोस में एक अम्माजी रहा करती थी . उनके घर में अपार वैभव था . उमका बेटा- बहू उसी शहर में अलग घर में रहते थे. शाम को बेटा अपनी माँ का हाल लेने आता था मात्र दस-पंद्रह मिनट के लिए. अम्माजी का ध्यान द्वार पर ही केंद्रित रहता था अपने बेटे की प्रतीक्षा में. व्याकुल रहती थी किसी से मन की बात करने केलिए. और बुजुर्गों से तो उनकी स्थिति बेहतर ही थी.
मध्यमवर्गीय बुजुर्गों की स्थिति और भी दयनीय है. यहाँ भी समयाभाव. आज के आपाधापी युग में उनकी संताने संघर्ष कर रहीं हैं. अपने को उच्च वर्ग में लाने केलिए. अपने माता-पिता के लिए उनके पास भी समय नहीं है. बस वे आगामी भविष्य के लिए अर्थात वे अपनी संतानों कि परवरिश में ही समय व्यतीत कर रहें हैं. अपने बहुमूल्य समय में माता-पिता केलिए समय देना तो नादानी ही हुआ न?! अब उनकी क्या उपयोगिता?! उनसे क्या लाभ जो अपने समय का दुरूपयोग करेगा ! बेचारे बुजुर्ग उपेक्षित जीवन जी रहे हैं. पड़ोस की दया पर निर्भर रहते हैं. उनकी बिडम्बना यह है कि न तो वे अपनी स्थिति के विषय में कुछ कह सकते हैं, अपने बच्चों की कमी को अनदेखी तो कर सकते हैं. लेकिन किसी को कुछ कह नहीं सकते हैं. समाज में अपनी संतानों कि छवि को कम नहीं करना चाहते फलतः घुट-घुट कर जी रहे हैं. मध्यमवर्ग की सबसे अधिक बिडम्बना है दिखावा. चाहे वे उच्च माध्यमवर्गीय हों या निम्न मध्यमवर्गीय. झूठी शान के लिए वे अपना जीवन उत्सर्ग कर रहें हैं. या तो युवा हों या बुजुर्ग समाज में सबसे दयनीय स्थिति इन्ही वर्गों की हैं. वे सांस तो ले रहे हैं लेकिन स्वच्छ हवा में नहीं. संघर्षमय जीवन ही इस वर्ग की पहचान है. बुजुर्ग की स्थिति अत्यंत ही दारुण है. सरकार ने वृद्धाश्रम जगह-जगह खोल तो रखा है लेकिन पर्याप्त नहीं है. इस वर्ग के वृद्ध आश्रम में जाना भी नहीं चाहते क्योंकि इनके बच्चों की बदनामी न हो.
आर्थिक दृष्टि से कमजोर या निम्न वर्ग के मनुष्य का जीवन ही आभाव से आरम्भ होकर अंत भी तड़प-तड़प कर समाप्त हो जाता है. इनके बच्चे स्वयं ही मजदूरी या किसी तरह जीवन यापन करते हैं. इस वर्ग के वृद्धों की न तो अपेक्षा है न इच्छा. कष्टमय जीवन व्यतीत करना ही इनका भाग्य है. वृद्धजन कम से कम आँखों के सामने अपने बच्चों को देखते तो हैं. आधी पेट खा कर खाट पर लेट कर बच्चों की राह ताकना प्रातःकाल से रात्रि तक प्रतीक्षा में ही व्यतीत हो जाता है. लेकिन बच्चों के दुःख तथा स्वयं की असमर्थता में तिल-तिल कर मरते रहते हैं. आशय यह है कि कोई भी वर्ग हो अधिकांश वृद्ध की स्थिति चिंतनीय ही है. इसके जिम्मेदार कहीं न कहीं एकल परिवार भी है. आज प्राथमिकताएं बदल रही है. मानव माता-पिता के कर्त्तव्य से विमुख हो रहा है. आवश्यकताएं सीमाहीन हो गयी हैं, आकाश की तरह अनंत हो गयी है. जिसमें जन्मदाता माता-पिता कि उपस्थिति व्यर्थ है.
मैं सुधीजनों से क्षमा-प्रार्थी हूँ क्योंकि कुछ मानव तो ऐसे निर्दयी , नृशंस नहीं हैं जो स्वयं के माता-पिता को बोझ समझें. मैं समाज के अधिकांश लोगों की बात कर रही हूँ सब की नहीं. प्रत्येक मानव की प्राथमिकता सर्वप्रथम अपने माता-पिता की देख -भाल, सम्मान होनी चाहिए. उन्हें आहत या अनदेखी नहीं करनी चाहिए. यदि वे संतुष्ट रहेंगे तो उनके आशीर्वाद से ही हमारा आगत भविष्य सुखमय हो जायेगा. अतः आज से हम सभी प्रण लें कि माता-पिता या किसी भी वृद्धों का दिल नहीं दुखायेंगे उन्हें उचित सम्मान देंगे. हरेक मानव का जन्म ही एक न एक दिन बुजुर्ग होने केलिए हुआ है. किसी पर आश्रित होना ही है. अतः यह एहसास नहीं होने देना है कि वे वृद्ध हो गए हैं वल्कि उनके मनोबल को ऊँचा उठाना है. मेरी राय तो यह है कि जहाँ ‘बुजुर्ग पूजित होते हैं वहाँ देवता का निवास होता है.
यही मेरा इस नव वर्ष पर प्रतिज्ञा है. और सभी से इस प्रतिज्ञा का पालन करने का अनुरोध है. अपने समाज में सभी आदरणीय बुजुर्गों का सम्मान करने संकल्प लेती हूँ.

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