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भ्रष्टाचार

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किसी भी तरह के भ्रष्ट आचरण को भ्रष्टाचार कहते हैं. यह वह विकराल समस्या है जिसका निदान अत्यावश्यक है. यदि इसका समाधान नहीं हुआ तो देश की स्थिति दयनीय हो जायेगी. इसका समाधान न कोई राजनेता कर सकता है न कोई राजनैतिक दल. हमें इसका हल सर्वप्रथम अपने भीतर ढूँढना होगा. इसकी जड़ घर से या परिवार से ही आरम्भ होती है. हम भाई बहनों के साथ पलते – बढ़ते हैं. माता-पिता अज्ञानता वश परवरिश से ही भेद भाव प्रारम्भ कर देते हैं. बाल्यावस्था में ही इसकी नींव पड़ जाती है. जिस बच्चे के साथ माता-पिता भेद भाव करते हैं वह बच्चा अनायास ही भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है. यदि कोई संतान माता-पिता के पास ही नौकरी करता है या उनके साथ ही रहता है तो उस संतान के प्रति माता-पिता का स्नेह अधिक हो जाता है, वहीँ दूसरा बच्चा उनसे दूर नौकरी करने को मज़बूर रहता है तो वे उनके ह्रदय से भी दूर हो जाता है. साथ में रहने वाला संतान के प्रति ही उत्तरदायित्व वे समझते हैं. चाहे वह संपत्ति हो या प्यार. भले ही दूर रहने वाला बच्चा ऋण ग्रस्त हो, किसी तरह गुजारा कर रहा हो लेकिन माता-पिता उसकी सहायता करना तो दूर उसका कष्ट भी सुनना पसंद नहीं करते हैं. सब कुछ समझ कर भी अनजान बने रहते हैं, अपेक्षा भी उसी बच्चे से रहती है. वह कर्ज करके पैसा दे या पेट काट कर. यह भी एक तरह से भष्टाचार ही तो है.
बचपन से ही भेद भाव रख कर बीज बो देते है. ऐसे ही लोग आस-पड़ोस में भेद भाव रख कर मानसिक पीड़ा पहुंचाते है. किसी को गरीब समझकर तो किसी को अपने समुदाय से अलग मान कर संताप पहुंचाते है. मैं इसे भी भ्रष्टाचार ही मानती हूँ. ऐसे ही कार्यक्षेत्र में भी होता है. तथाकथित उच्चाधिकारी चापलूसी करने वालों को पदोन्नति दे कर या उनकी झूठी तारीफ करके ईमानदार एवं कर्मठ तथा स्पष्टवादी के साथ गलत आचरण करते हैं, उनको पदोन्नति नहीं देना भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना ही तो है. जातीयता,क्षेत्रीयता, इत्यादि को महत्व देकर अनुचित लोगों को बढ़ावा देना भी भ्रष्टाचार के दायरे में आता है. यह स्थिति मात्र सरकारी ही ही नहीं प्राइवेट क्षेत्र में भी समान रूप से है.
हमारा समाज सामंतवादी बिचारधारा का गुलाम होने के कारण अर्थ संपन्न व्यक्तयों को महान समझता है चाहे वह अर्थ किसी भी तरह से उपार्जन किया गया हो. आवश्यकता से अधिक अर्थ उपार्जन करने हेतु भ्रष्ट आचरण करना ही पड़ेगा . या तो घेंट (गला) काटो या पेट काटो. पेट काटने से थोडा बहुत लेकिन घेंट काटने से अकूत अर्थ उपार्जन किया जा सकता है. किसी भी वस्तु का खुदरा मूल्य उत्पादन खर्च से कई गुणा ज्यादा रखा जाता है और मुनाफाखोर लोग धन जमा करने में आगे रहते है. इन मुनाफाखोर को सभी इज्जत देते हैं. उन्हें मुनाफा बनाने के लिए सरकारी तंत्र को खुश रखना पड़ता है और इस हेतु वे लोग सरकार को भी भ्रष्ट बना देते हैं. सरकार में भ्रष्ट लोग चाहे वे जनसेवक हों या सरकारी मुलाजिम सभी धन की लालसा में भ्रष्ट हो जाते हैं. भ्रष्ट हों तो हों समाज में उन्हीं की इज्जत होती है.
मेरे गावं में एक लड़का है जो दसवीं में तीन बार फेल हुआ लेकिन वह अचानक घर से भाग कर मुम्बई चला गया. वहाँ उसने पता नहीं क्या किया क्या नहीं और कुछ वर्षों बाद जब गांव लौटा तो इतना धन लेकर लौटा जितना की उसके चाचा जिन्होंने पी.एच .डी कर व्याख्याता की नौकरी कर जीवन भर में नहीं बना पाये थे. लोग उन्हें कहते हैं-अरे तूने इतना पढ़ के क्या किया ? ढंग का घर भी नहीं बना पाये! और अपने भतीजे को देख बेमतलब पढाई पर खर्च किये बिना ही कितना धन कमाता है. अर्थात मुर्ख हो कोई बात नहीं. धन अकूत होनी चाहिए. अब प्रोफ़ेसर साहब को कोई सलाम करे या न करे उनके भतीजे को सब सलाम करते है.
चुनाव लड़कर मंत्री बनकर जितना कमाया जा सकता है उससे कई पीढ़ियों का कल्याण हो जाता है. चुनाव लड़ने केलिए और विजय प्राप्त करने केलिए किसी भी शिक्षा की जरूरत नहीं होती. आवश्यकता किस चीज की होती है सब जानते हैं.
शायद सामंतवादी समाज में भ्रष्टाचार शब्द उतनी ही पुरानी होगी जितनी मानव उत्पत्ति का इतिहास. अतः इसे मिटाना भी उतना ही मुश्किल होगा. भले ही आप कितनी भी शपथ लें या नारा दें. यहाँ कौन भ्रष्टाचारी नहीं है? न्यायपालिका हो वयवस्थापिका हो या कार्यपालिका हो. हर क्षेत्र के लोग समय – समय पर भ्रष्ट पाये गए हैं. मुझे तो लगता है की ‘जो पकड़ा नहीं गया तथा जिसे मौका नहीं मिला वही साधू है बांकी सब शायद ! भ्रष्ट है.

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