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जाएँ तो जाएँ कहाँ?(उपवन-९)

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मैं सांसारिक प्रपंचों से व्याकुल थी. बारम्बार मन हो रहा था कहीं ऐसी जगह जाऊँ जहाँ मन शांत हो. दुनियां के स्वार्थमय व्यवहार से मन व्यथित था. सोचा की चलो पास में ही एक उद्यान है वहीँ जाकर थोड़ी शांति मिलेगी. अतः मैं शांति हेतु उपवन में जाकर नयन बंद कर ध्यानमग्न थी कि कुछ महिलाओं के वार्तालाप से ध्यान भटक गया तथा अनायास ही उनकी बातों के तरफ केंद्रित हो गया.
करीब १०-१५ महिलाओं का झुण्ड आपस में बतिया रही थी. भेष-भूषा से सभ्रांत प्रतीत हो रही थी. वार्तालाप का मुख्य विषय शायद उनके अपने -अपने पतियों से सम्बंधित था. किसी ने अपनी दुखड़ा बयां करते हुए कहा कि “जब से उन्होंने हाथ का साथ देना शुरू किया है, उनको जेल ही पहुंचा दिया गया. राजा के बिना क्या होगा ? हमारा अवसर आना तो कठिन है. दो-चार सहानुभूति की कुर्सियां मिल भी जाये तो क्या ? रबड़ी खाना तो मुश्किल ही है. कोई बोले तो क्या बोले ? किसी-किसी के नज़रों में कटुता पूर्ण बनावटी सहानुभूति दिख गया(अच्छे अभिनेत्रियों को भी ग्लिसरीन प्रयोग करना पड़ता है). दूसरी ने भी अपनी कहानी बयां की- उसने भी अपनी दशा दयनीय होने की बात बताते हुए कहा कि यह मायानगरी है. लेकिन यहाँ के लोग हर पाँच साल बाद जब समाजबाद का भूत उतरता है तभी माया को मौका देते है. अभी तो हर कोई माया रहित हो गए हैं. तभी वार्तालाप में टपकते हुए बंगाली बाला ने आवाज ऊँची कि और कहने लगी अब लोग अखिल ब्रह्माण्ड में अपनी पाषाण हृदय में ‘ममता का अस्तित्व को मिटा दिया है’. अब दिखावा ही सर्वोपरि है. तभी एक आवाज आई कि देखिये बहनों हमें नीति से काम लेना चाहिए, इसीमें हमारी भलाई है. नीति का ध्यान रखने से हम आनंदपूर्वक बिहार कर पा रहे हैं. नीतिपूर्वक कार्य करने से ईश्वर मेरे साथ हैं, मेरा जुगाड़ चल ही रहा है.
और एक बड़ी सधी हुई आवाज़ आयी वह भी हाथ दिखाते हुए कहने लगी क्या कहूं मित्रों सब(स-समाज तथा ब- बहुजन) को साथ लेकर चलने कि कोशिश भी कि लेकिन भूल तो हो ही जाता है. इतना विशाल परिवार है मेरा कि सबको संतुष्ट करते-करते स्वयं ही खाली हो गई हूँ. खाली हाथ करूँ तो क्या करूँ ? अब तो राम भरोसे हैं. वही खेवैया हैं. नाव बढ़ेगी या डूबेगी कुछ कह नहीं सकती. ऐसा कहकर पुनः अपनी हाथ ऊपर आकाश की तरफ उठाकर उदास हो गयी.
तभी किसी ने राहत कि सांस लेते हुए कहा मुझे तो मेरा नव परिवार बढ़ाना है. एकल परिवार में कमल तो फल-फूल रहा है मगर अब देखना है कि क्या लोगों का विश्वास कमलमय होगा मेरा बड़ा परिवार ? . ऐसा कहकर घमंड से सबकी ओर देखने लगी.
उन्हीं के मध्य बहुत देर से चुप बैठी एक महिला ने कहा – तुम सब कुछ भी कहो – तथाकथित परिवार तो मेरा ही फलेगा-फूलेगा. क्योंकि मैं हर मौसम में रसीला आम खिलाऊँगी(आम और लव का कोई मौसम नहीं होता) तो स्वभावतः सब मेरी ही ओर झुकेगी. मेरी ही प्रशंसा करेंगे , क्योंकि मैं आम के साथ-साथ झाड़ू से सफाई भी करुँगी. साथ दे तो आम नहीं तो झाड़ू मारकर सबका (स-समाज,ब-बहुजन एवं का-कांग्रेस) सफाया करुँगी, क्योंकि अभी तक हम ईमानदार हैं. किसीको दागदार आम नहीं खिलाऊँगी. इसीलिए मैं तो तुम सबसे अच्छी तरह अपने होने वाले परिवार को सम्भालूंगी.
इनका कथन सुनकर पहले तो कानाफूसी हुई फिर तू-तू मैं-मैं होने लगी. अधिक शोर सुनकर मैं चुप-चाप वहाँ से खिसक गई और सोचने लगी जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? धर्म के संगत में जाओ तो वहाँ धर्म के आड़ में मात्र अर्थ और गन्दगी का ही बोल-बाला . यथा चंदा दे दो . प्रसाद के लिए अर्थ इत्यादि.
सामान्य जन के पास जाओ तो वहाँ भी सहेलियां मात्र अर्थ से ही अपना ध्यान और मतलब रखती हैं. अर्थ के पीछे भागने वाली तिज़ारत हेतु अपना अपना सामान बेचने के पीछे पड़ जाएँगी. कोई टपरवेयर कोई ‘ऍम वे’ कोई चादर कोई कपडे. इन से खरीद लो तो भली नहीं तो बुरी. सभी जगह अर्थ का ही महत्व है. सत्य ही कहा गया है-“टका स्वर्गः टका धर्मः ” इन सब से ऊबकर मैं शांत मन से उपवन (पार्क) में आयी थी कि चैन कि सांस ले सकुंगी. यहाँ आने के बाद इन समाज के सभ्रांत कहे जाने वाली महिलाओं का वार्तालाप सुनकर मन खिन्न हो गया.
आखिर जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ? किसके पास बैठकर बातें करूँ जहाँ मन को तसल्ली मिले. लेकिन कहीं भी नहीं है ऐसा स्थान जहाँ कोई हमारी सुने. सबको अपनी पड़ी है. सर्वत्र स्वार्थ ही स्वार्थ है. मैं सोचने पर विवश हूँ कि आखिर धरा में कौन सी ऐसी जगह है जहाँ अर्थ से दूर स्वार्थ से दूर बनावटी आकृति से दूर कोई स्थान है ? है भी या नहीं? ज्ञात नहीं.

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