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उपवन-८ ; मौसी

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मैं ‘ आल इंडिया ओरिएण्टल कांफ्रेंस ‘ में शिरकत करने कश्मीर गई थी . उस दिव्य प्रदेश का अवलोकन कर मैं अचरज में थी कि इतना मनोरम दृश्य ! वास्तव में इसे धरती का स्वर्ग कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा , यह तो ख्वाब से भी बढ़ कर है. मैं ऐसा अनुभव कर रही थी, जैसे स्वप्न देख रही हूँ. इसकी शोभा को शब्दों में समेटना असंभव है. हरीतिमा को अपने में समेटे हुए यह दिव्य प्रदेश आकर्षण का केंद्र है. कतारबद्ध फूलों कि मोहकता , करीने से सजा गुलाब , लम्बी कतार में शाख – विशाख हो फैले नाना प्रकार के पुष्प , शांत डल-झील में रंग-बिरंगी नौकाएं उसमें सवार जल विहार करते एवं कश्मीर कि मोहकता का रसास्वादन करते अपनी जीवन की कठिनता को विस्मृत कर उन्मुक्तता का आनंद उठाता अनेक प्रदेश से आये सैलानी ऐसे लग रहे थे जैसे सम्पूर्ण भारत का प्रतिबिम्ब दिख रहा हो.
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भारत के अधिकांश कवि या लेखक इसी प्रदेश कि सौंदर्य को देख कर काव्य , महाकाव्य या ग्रंथों को अलंकृत किया होगा.
मैं वहां कांफ्रेंस से फुर्सत पाकर ‘कश्मीर यूनिवर्सिटी ‘ स्थित एक उपवन में निमग्न थी और सोच रही थी कि हमारे शहीद भाइयों ने अपनी जान न्योछावर कर दी इसकी रक्षा में. उनके बलिदान के कारण ही हमें यह स्वर्गिक आनंद मिल रहा था. उनकी त्याग को याद कर गुन-गुना रही थी “ऐ मेरे वतन के लोगों………” रमणीक स्थल तथा अपने वीर भाइयों के याद ने मेरी सुध ही बिसरा दी थी. तभी अचानक मेरे कानों में चिर-परिचित आवाज़ ने दस्तक दी और मेरी तन्द्रा भंग हो गई.पलट कर देखा तो पास ही मेरी सहपाठिनी अपने किसी मित्र से बात-चीत कर रही थी. मैंने पीछे से जाकर उसकी आँखें अपनी हथेलियों से ढक दिया और पहले की ही तरह पूछा ‘पहचान कौन?’ आश्चर्यजनक रूप से उसने तुरंत कहा या उस के मुंह से मेरा नाम निकल गया . मैं भी उसके आवाज को पहचान कर पलट कर उसे देखा था और मेरी सहेली ने भी मेरी आवाज को पहचान लिया था . सुखद क्षण था वह.
हम अपने पुराने दिनों को याद करने लगे और बहुत सारी बातें होने लगी और उसी क्रम में पल्लवी मौसी का जिक्र आया और उसका यह कहना कि पल्लवी मौसी नहीं रही. ‘लोग कहते हैं उनकी देवरानी ने उन्हें धक्का दे दिया था. उनका कमजोर शरीर इस आघात को सहन न कर सका और उनका प्राणांत हो गया. उनकी सम्पूर्ण जीवनी मेरी आँखों के सामने घूम गया और मैं उनकी यादों में खो सी गई. वे वाल – विधवा थीं . मात्र १३ -१४ वर्ष की अल्प – आयु में परिणय – सूत्र में बांध दिया गया. विवाह के दूसरे दिन ही प्रातः काल मौसाजी को सिरदर्द हुआ और वे काल – कवलित हो गए. सम्पूर्ण गाँव में हाहाकार मच गया. मौसी दुःख के सागर में डूब गयीं. वाल्यावस्था में ही ऐसी भीषण त्रासदी ? पहले के बच्चे असमय ही बड़े हो जाते थे. आज के ज़माने में तो १३-१४ में बच्चे को तो इतनी समझ भी नहीं होती है.
मौसी की निश्छल हंसी ,किशोर वय की कल्पनाएँ , मधुर सपने सभी कुछ रेत के महल की तरह ढह गया. रह गया तो मात्र एकाकीपन एवं समाज के लोगों की कृपादृष्टि . समय बलवान होता है यह कहावत चरितार्थ होते हुए दॊ साल व्यतीत हो गए. मौसी के स्वसुर मौसी को देखने तथा अपने साथ लेजाने के लिए बराबर आते रहे . वे सज्जनता के प्रतिमूर्ति थे. उनके बार -बार आने से तथा वत्स्ल्यातापूर्ण स्नेह के वशीभूत मौसी अपने पिताजी से ससुराल जाने की अनुमति ले ली . उनके पिताजी ने इस हिदायत के साथ भेजा की अगर मेरी बेटी का मन नहीं लगेगा तो यह अंतिम बार जाना होगा. मौसी के सास-स्वसुर के अत्यंत लाड के कारण मौसी वहीँ रहने लगी . मात -पिता सदृश सास-स्वसुर को पाकर मौसी निहाल थीं. दोनों ने मौसी को पुनर्विवाह करने की भी सलाह दी. लेकिन मौसी ने स्वीकार नहीं किया. विवाह के रस्म के समय ध्रुव तर देखने के वक्त प्रथम दृष्टि से मौसाजी को देखा था. और उसी प्रथम दृष्टि में मौसाजी के अटूट बंधन में बंधना या सात फेरे के वचन का असर था कारण तो ज्ञात नहीं है लेकिन वो दूसरी शादी केलिए कभी भी राजी नहीं हुईं. बातों-बातों में एक बार उन्होंने मुझे कहा था की तुम्हारे मौसाजी साक्षात् कामदेव के अवतार थे.उनके रूप लावण्य तथा उनकी स्नेहसिक्त नयन को मैं आजीवन नहीं भूल सकती, लगता है उन आँखों का जादू था जिसके अवश में मैं एक जन्म क्या जन्म -जन्मान्तर तक ऐसे ही जीवन गुजार सकती हूँ. अस्तु.
मौसी अपने ससुराल में प्रसन्न थीं. उनके स्वसुर ने उनके लिए सुविधापूर्ण हवेली ही बनवा दिया था. उनका अधिक समय पूजा में ही व्यतीत होता था. कुछ वर्ष बाद स्नेहमयी सास का देहांत हो गया और फिर स्वसुर भी नहीं रहे. मौसी का विचलित होना स्वाभाविक ही था. लेकिन उन्होंने पुनः अपने आपको संभाल लिया.
१८ वर्ष की आयु में ही मौसी तपस्विनी हो गई थीं. सदैव धार्मिक कार्यों में ही लीन रहती थी . मधुर स्वभाव तथा परोपकार की भावना के कारण गाँव वालों की चहेती थीं. अपने भाई जैसे देवर को भी संभाला. कुछ दिनों बाद देवर का विवाह भी हो गया. देवर के विवाह होने के उपरांत देवरानी का व्यव्हार स्नेहपूर्ण नहीं होने के कारण उन्होंने अपने आप को कछुए की तरह अपने खोल में समेट लिया. पुनः धार्मिक कार्यों में तल्लीन रहने लगीं. यह कहावत की बच्चों की ममता के समक्ष सारी तपस्या धूमिल हो जाती है. यही मौसी के साथ भी हुआ. देवर के पुत्र होने के बाद उसके लालन -पालन में खो सी गयीं. बच्चों की किलकारियों में अपने जीवन के समस्त दर्द को भूल गईं. बच्चे के परवरिश में समय कैसे व्यतीत हो रहा था इसका भान भी उन्हें नहीं हुआ. देवरानी का स्वभाव भी बदल गया था. बच्चा भी अब बड़ा होने लगा . देवरानी ने छल से झूठा स्नेह दिखाकर भोली-भली मौसी से सारी जायदाद अपनी बेटे के नाम करवा ली. मौसी की सहेली ने रोकने की अथक प्रयास किया लेकिन प्यार में अंधी बनी मौसी उनकी बात न सुन सकी न समझ सकी. कुछ दिनों बाद उनकी हवेलीनुमा घर भी बच्चे की पढाई की आड़ में मौसी से छीन लिया गया. मौसी तो बच्चे केलिए कुछ भी कर सकती थी. उन्होंने सहर्ष वह हवेली भी उनके नाम कर दिया. उदार हृदया मौसी को नौकरोंवाला कमरा मिल गया. उस कोठरी को ही अपना नियति मान कर रहने लगीं. एक बार ध्यान टूटने से पूजा में भी मन नहीं लगता था . देवर के बेटे पर ही ध्यान लगा रहता था. देवरानी द्वारा अपमानित होने के बाद भी वो बच्चे से मिलने चली जाती थीं. उनकी सहेली मना करती थी , कहती थी ‘मिर्ची के वृक्ष में मिर्च ही तो फलेगी’ मोह मत कर, लेकिन मौसी का दिल तो मानता ही नहीं था.
उनकी सहेली का जीवन भी सुखमय नहीं था. परित्यक्ता थी वह. पति के स्नेह से वंचित उनकी एक मात्र सहेली मौसी ही सहारा थीं. मौसी का अपनी इस गरीब सखी से अगाध स्नेह था. कभी-कभी आर्थिक सहायता भी मौसी कर देती थीं. लेकिन अब तो मौसी खुद ही असहाय हो गई थीं. दोस्ती तो स्वार्थ से परे होता है. जब अपना साया भी छोड़ देता है तब भी सच्चा मित्र साथ निभता है. इसी उक्ति को सत्य प्रमाणित करते हुए दोनों दोस्त एक दूसरे का सहारा बनकर जीवन व्यतीत कर रही थीं.
समयानुसार देवर के बेटे की भी शादी हो गई. सौभाग्यवश उसकी पत्नी मौसी का बहुत सम्मान करती थी. उनका बहुत ध्यान रखती थीं. मौसी का भी बहुत लगाव था बहू से. उसने मौसी को उस कल-कोठरी से निकल कर अपने पास के कमरे में ही सा-सम्मान रखा. पहली बार उनका जन्म दिन भी मनाया. तपते रेगिस्तान में ओस की बूंदों का महत्व वहां के रहने वालों को ही पता होता है. वैसे ही सदैव स्नेह से वंचित मौसी निश्छल स्नेह पाकर आनंदमग्न हो गई थी. कहते हैं न सुख की घड़ी छोटी होती है. मौसी कोई अपवाद तो थी नहीं. उनके साथ भी यही हुआ. उनकी सहेली तीर्थ यात्रा पर निकल गई. मोह वश मौसी साथ नहीं जा पायीं. बहू भी अपनी माँ की अस्वस्थता के कारण मायके चली गईं. उसके जाने के बाद देवरानी का आतंक आरम्भ हो गया. देवर तो अपनी कुटिल पत्नी के कारण मनो मौन व्रत ही धारण कर बैठा था. वृद्धावस्था एवं कठिन परिस्थिति के कारण मौसी का शारीर जर-जर हो गया था. ताने – उलाहने से क्लांत हो गई थीं. आज उनके सब्र का बांध टूट गया था, कहावत भी है कि ‘वीणा के तार को इतना मत खींचो कि वह टूट ही जाये’. उन्होंने पलट कर अपनी देवरानी को जवाब दिया – कहा कि ‘ मैं मूर्ख नहीं हूँ,तुम्हारी धूर्तता समझती हूँ, घर में शांति तथा संस्कारगत स्वभाव के कारण चुप रहती थी, सम्पति भी मैंने दे दी, फिर भी तुम मुझे जीवन पर्यन्त परेशान ही करती रही. न स्वयं चैन से रही न मुझे रहने दी. ईश्वर से डर उससे बड़ा कोई नहीं है.’ जीवन भर उफ़ तक नहीं करने वाली सरला मौसी इतना कहने के साथ ही हांफने लगी तथा आंसू से भीग गईं. एक क्षत्र राज्य करने वाली देवरानी से सहन नहीं हुआ और उसने मौसी को चालाकी से धक्का दे दिया जिससे मौसी गिर गईं और उनका अंत हो गया. इस नश्वर शरीर से सदा केलिए मुक्त हो गईं. इतनी त्यागमयी महिला का इस तरह अंत !
जीवन बहुत अनमोल है. इसे इस तरह बर्बाद नहीं करना चाहिए था. सबके इच्छा अनुसार उन्हें पुनर्विवाह कर लेनी चाहिए थी. मात्र भावना से और त्याग से कुछ नहीं होता.

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