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बेटे न रह जाएँ उपेक्षित

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आज कल जब से ” बेटी बचाओ ” का नारा लगा है तब से कुछ परिवारों को छोड़कर सभी परिवारों में बेटियों की महत्ता बढती जा रही है और बेटे गौण होते जा रहे हैं.
बेटियों को सारी सुख सुविधाओं से नमाज़ा जाता है वहीँ बेचारे बेटे उपेक्षित रह जाते हैं. बेटिओं के पास ३०-३० जोड़ियाँ कपडे होते हैं वहीँ बेटे को दो जोड़ियों में ही सतोष करना पड़ता है. बेटियों के लिए आभूषण पर आभूषण बनाया जाता है वहीँ बेटे को अंगूठी भी नसीब नहीं होती. बेटे बेचारे साइकिल में ही खुश रहते हैं वहीँ बेटियों को कार ही चाहिए.
शिक्षा दोनो को सामान रूप से दिया जाता है, बेटियों को जन्म के बाद से ही माता-पिता उसके विवाह के लिए अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा बचाते हैं, बेटे के हिस्से का भी.बेटे भी प्रसन्नतापूर्वक अपनी बहनों के लिए जीवन न्योछावर करता है.
बेटी की विवाह में हर माता-पिता अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च करते हैं. जीवन-पर्यन्त बेटी को देते ही रहते हैं. कभी बेटी के बच्चों के जन्म पर तो कभी उसके ससुराल बालों की मांग पर. जितनी बार बेटी मायके आती है उन्हें उपहारों से नवाया जाता है. वहीँ बेटे को कहा जाता है की तुम्हारा घर है. तुम्हारा कर्तव्य है.
आज अनेकों परिवार में बेटे से अधिक बेटियों को ही स्नेह दिया जाता है. अतः बेटी को अभिशाप नहीं वरदान माना जाता है. गोद भी अक्सर बेटी को ही लिया जाता है. फिर बेटी के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार क्या है?मेरी धारणा है की बेटी-बेटी करने से समाज में कहीं बेटे उपेक्षित न रह जाएँ.
कितने परिवार में तो बेटे के साथ ना-इंसाफी होती है.कुछ परिवार के सम्बन्ध में बताना चाहती करना चाहती हूँ .
आशुतोष जी की चार बेटियां तथा दो बेटे हैं. वे सदैव बेटियों को महत्व देते आ रहे हैं. अपनी आमदनी का अधिकांस भाग अपनी बेटियों पर ही खर्च करते हैं. बेटे – बहु पर तो नाम मात्र. बेटे- बहु भी उनके शालीन हैं वे सब भी अपनी बहनों का बहुत सम्मान तथा स्नेह देते हैं. लेकिन आशुतोष जी की केन्द्रविंदु तो मात्र बेटियां ही हैं. ऐसा नहीं है की वे बेटे से स्नेह नहीं करते लेकिन बेटियों पर जान देते हैं. सब मिलकर अच्छा ही चल रहा है उनके घर में.
एक बार की बात है मैं उनके घर गयी थी . बातों की क्रम में उनका यह कहना कि “हम अपनी पुत्रियों को भी अपनी जायदाद में बराबर का हिस्सा देना चाहते हैं”.मुझे अजीब लगा . क्यों की उनकी बेटियां अपने परिवार में सुखी एवं संपन्न हैं. बेचारे बेटे भी अपनी बहनों को अपनी आमदनी का बड़ा भाग बहनों पर खर्च करते हैं. उनके बेटे को भी बहनों को देना अच्छा ही लगेगा लेकिन क्या यह उचित है. जब अपने जीवन की कमी बेटियों पर ही खर्च करते आ रहें हैं तो फिर हिस्सा क्यों?
दोसर उदहारण है माधव बाबु का . चार संतानों में दो बेटियां तथा दो बेटे हैं.माधव बाबु की भी जान बेटियों में ही बसती है. उनका बीटा विदेश में रहता है. घर कम ही आ पता है. लेकिन जब भी आता है तो यही सुनाने को मिलता है की बहनों केलिए कुछ कर. उनकी बेटियां दस कदम दूर पर ही रहती हैं फिर भी जब भी आती हैं उन्हें सम्मान तथा उपहारों से लड़ दिया जाता है, वहीँ बेटे उपेक्षित होते रहते है.
मैं सोचने पर विवश हूँ की क्या यही है समानता ? ऐसे लाखों परिवार में बेटे उपेक्षित ही होते रहते है.
इन दिनों बहस हो रही है बेटियों की हक़ की, उसे मज़बूत बनाने की . बेटियां तो आरम्भ से ही शक्तिशाली रही है. परापूर्व कल से शसक्त . माँदुर्गा भी तो बेटी ही थीं.. कुछ परिवार को छोड़ कर सर्वत्र बेटियों का ही वर्चस्व है. माता-पिता आजीवन बेटियों पर ही प्यार लूटते रहते है. बाल्यावस्था से ही उसकी देख-भाल अत्यधिक स्नेह से करते हैं. वहीँ बेटे बहनों की नखरे उठता रहता है. उसे सदैव उपदेश मिलता है की बहन तो पराया है, उसे तो दूसरे घर जाना है. नाम मात्र की परायी बहन ससुराल तथा मायके दोनो जगह राज़ करती है. वहीँ बेटा आदेशपालक ही रह जाता है.
आज-कल कुछ असामाजिक तत्व कुछ बेटियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, दहेज़ के कारण प्रताड़ित करते हैं., हवश का शिकार बना रहे हैं.बेटे भी कहाँ हैं सुरक्षित?
har माता-पिता का यह पुनीत कर्तव्य है की दोनों को सामान भाव से पालन करे न की एक को प्यार दे दूसरे को उपेक्षित रखे . दोनों समाज की अनमोल धरोहर है. दोनों को अपनी दोनों आँखों के सामान मानना चाहिए.

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