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सीता के देश में नारियों की दुर्दशा

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देश की सबसे विकराल समस्या है महिलाओं की असुरक्षा. माता सीता के देश में नारियों की यह दुर्दशा ! प्राचीन काल में दुश्मन के घर में भी नारियां सुरक्षित थीं. रावण के घर में भी मत जानकी सुरक्षित रहीं. क्या आज घर में भी महिलाऐं सुरक्षित हैं?
बड़ी-बड़ी बातें होती है की स्त्री-पुरुष सामान हैं. क्या यही है समानता?
महिलाओं के साथ दुष्कर्म , क्रूरता की पराकाष्ठा हो गई है. महिलाओं की तो छोड़ें , बच्चियां हवस की शिकार हो रही हैं. कहाँ जाएँ ,किसकी शरण में जाएँ ? कहाँ अपनी बच्चियों को छिपाकर रखें ? धरातल पर ऐसी कौन सी जगह सुरक्षित है जहाँ महफूज रखें ? किसके पास गुहार लगायें? सरकार भी क्या करे? नर-पिशाच के समक्ष दीनहीन है . दिन भर परिश्रम करके यदि रात्रि को सिनेमा या किसी ऐसी जगह मनोरंजन के लिए जाएँ तो नरभक्षी की शिकार होकर जीवन-मृत्यु के बिच जूझना पड़े ?
माता – पिता किस तरह नन्ही पारी की परवरिश करते हैं और वही नन्ही पारी न जाने किस नर -पिशाच के हवस की शिकार हो जाये. अख़बार में शायद ही कोई दिन ऐसा हुआ हो जिस दिन दस अबलायें , बच्चियां ऐसे अपराधिक प्रवृति का शिकार न हुई हो. पेपर खोलते डर लगता है पता नहीं कौन सी दिल दहलाने वाली घटना हो.
सरकार भी असमर्थ है. वास्तव में लाचार है. कब तक बहन बेटियां ऐसे ही नर-पिशाच के हाथों शहीद होगी ? इश्वर भी मूक दर्शक बना बैठा है. उसकी संतान इतनी संताप से गुजर रही है फिर भी वह दर्शक बना देख रहा है? किसे दोष दें , कहाँ जाएँ? काश ! कोई ऐसा स्थान हो जहाँ महिलाएं निर्भय होकर जीवन यापन करे.
ऐसे नर-पिशाच के लिए फाँसी की भी सजा कम है. हम सभी को मिलकर इसका समाधान करना होगा. भ्रष्टाचार के लिया तो लोग इतना कुछ कर रहे हैं लेकिन केवल आर्थिक भ्रष्टाचार ही ब्र्श्ताचार नहीं होता. कोई भी आचार अगर भ्रष्ट है तो वह भ्रष्टाचार है. लेकिन राजनैतिक परिभाषा शायद कुछ अलग है! इस तरह के भ्रष्ट आचार जो की भयानक, हृदयविदारक अमानवीय समस्या है , इसकेलिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं. आर्थिक भ्रष्टाचार , कला धन आदि केलिए तो लोग दिन रात आन्दोलन कटे हैं. लेकिन बलि-वेदी पर चढ़ी हुई मानसिक संताप से जूझती हुई निर्दोष बालिकाओं , महिलाओं के लिए क्यों नहीं आवाज उठाते हैं? नेता लोग बस एक दुसरे पर आरोप लगते हुए अपना उल्लू सीधा कर रहे है. उन्हें इससे क्या मतलब की आम आदमी की संतानें कितनी बड़ी समस्याओं से प्रतिदिन जूझ रही हैं. हर मान अपनी बच्चियों को स्कूल -कालेज या आफिस भेजकर कितनी व्याकुलता से प्रतीक्षा करती हैं की मेरी बेटी सकुशल घर लौट आए. ऐसी मानसिक स्थिति में वे क्या कर पाएंगी . बस डर के साये में जी रही है.
किस पर विश्वास करें. आज की स्थिति तो इतनी भयानक है कि अपनों पर भी भरोसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि अपना तो कोई है ही नहीं. बड़ी होती बच्चियों कि परवरिश कुछ इस तरह हो जिसमें उसे यह बता दिया जाये कि कोई भी अपना नहीं है.

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