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पाखंड -दिमागी दिवालियापन

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कुछ दिन पहले की घटना है. हमारे किसी मित्र के घर कीर्तन था. हम वहां गए थे. भजन कीर्तन चल रहा था. सर्बत्र भक्तिमय वातावरण व्याप्त था. हम सभी भक्ति-रस का आनंद ले रहे थे. सम्पूर्ण वातावरण अगरबत्तियों तथा प्रसाद की सुगंध से व्याप्त था. अर्थात अत्यंत मनमोहक तथा भक्ति से परिपूर्ण वातावरण था. हम सभी तल्लीन थे भगवत्भजन में.
अचानक फुसफुसाहटें आरम्भ हो गई . सबकी आवाजें धीरे-धीरे आने लगी की देवी मैया आ रही हैं. मैं ध्यानमग्न होकर माता की मूर्ति को देखने लगी, तथा मन ही मन माता को प्रणाम किया. पुनः महिलाओं की ओर देखा की आखिर माजरा क्या है ? क्या साक्षात् माता दर्शन देंगी. बहुत सारी बातें मन ही मन सोचने लगी कि माता से क्या – क्या बातें करुँगी . क्यों कि मानव तो समस्यायों का भंडार होता है. मैं भी मानव ही हूँ तो जाहिर है मेरे पास भी बहुत समस्याएँ हैं, देवी माँ से मिलकर सबका समाधान करवा लुंगी. अपने भाग्य पर भी इतराने लगी आज माता मिलेंगी. मैं कितनी भग्यशाली हूँ इत्यादि…
पुनः अपने खोल से निकल कर वस्तुस्तिथि से अवगत होने का प्रयत्न करने लगी. देखा कि कुछ महिलाएं हाथों में पुष्प – माला लेकर खड़ी थीं. जोर -जोर से आवाजें आने लगी, बधाइयाँ गाया जाने लगी, उसके बाद मानव रूपी माता आयीं. पुष्प वर्षा होने लगी , आरती के साथ भव्य स्वागत हुआ. उन्हें आसन पर बिठाया गाया. वास्तव में अपूर्व रूप था उनका, बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बी,पतली , गौर वर्ण. मैं उनके रूप-लावण्य को मुग्ध भाव से देख रही थी. इतने में एक परिचिता ने धीरे से कहा कि इन पर देवीजी आती हैं. मैं आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखने लगी. मेरी दृष्टि उनपर से हटती ही नहीं थी. कुछ देर बाद कल्पना से भी परे ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ कि हमारे रौंगटे खड़े हो गए. कारण देवीजी उनपर सवार हो चुकी थीं. उस नाटकीय दृश्य का कुछ अंश मैं आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ–
तथाकथित माता ने अपने बाल खोल रखा था. पहले तो उन्होंने हाथ हिलाना शुरू किया. फिर अपने सरे बालों को आगे कर लिया और अपना सर जोर-जोर से हिलाने लगीं. कम से कम आधे घंटे तक यह कार्यक्रम चलता रहा. मैं कभी माता दुर्गा की मूर्ति को देखती तो कभी उन मानवरूपी देवी को. धीरे -धीरे वह पूर्ववत होने लगीं. जिनके घर कीर्तन था उनके घर के सदस्यों ने उनको प्रणाम करने लगे. और वह देवी जोर-जोर से उनके पीठ पर मर-मर कर आशीर्वाद देनी लगीं. मैं झूठ क्यों बोलूं मैं भी उन्हें प्रणाम करने गई. लेकिन मुझे पिटाई रूपी आशीर्वाद नहीं मिली.
पूजा समाप्त होने के बाद मैं यह सोचने पर विवश हो गई की क्या हम इक्कीसवीं सदी के हैं? मुझे यह बात याद आ गई कि हम सभी पृथ्वी पर अभिनय करने आयें हैं, सभी पात्र को अपने-अपने किरदार को निभाना है, हम कठपुतली मात्र है. यह सत्य भी है. लेकिन मुझे लगता है कुछ चालाक लोग इस कथन का दूसरा अर्थ लगा कर धूर्तता करके अन्धविश्वास फैलाकर नाटकीय रूप से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. क्या इस तरह के लोग अंध विश्वास फैलाकर समाज को भ्रमित नहीं कर रहे हैं?
इतनी तरक्की करने के बाद भी हम भुत-प्रेत, डायन या किसी के ऊपर माता के आने का ढोंग पर विश्वास करते रहेंगे. इससे हमारा नैतिक पतन नहीं हो रहा है. यदि माता इतनी सस्ती होती कि वह मनुष्य के ऊपर या मनुष्य में प्रवेश करके किसी के भजन में आतीं और सर को हिला – हिला कर बालों को आगे रख कर या सर को घुमा – घुमा कर अजीव वातावरण पैदा कर देती. यदि ऐसा होने लगे तो मूर्ति पूजा क्यों? ऐसे ही मानव रूपी तथाकथित देवियों का पूजा होती .
क्या माता भी दल बदलू हो गईं हैं. जो कीर्तन करवाएगा उन्हीं को आशीर्वाद देंगी. यह विडम्बना नहीं है तो और क्या है.
कुछ दिन पहले टी.वी. के कलर्स चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम दिखाया गया था जिसमें घर की किसी परेशानी से आहत होकर महिला देवी के प्रवेश का नाटक किया करती थी. इसका पर्दाफाश “जिन्दगी के हकीकत से आमना -सामना ” कार्यक्रम के द्वारा हुआ था.
मुझे क्या पता था की इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी मुझे मिल जायेगा. ऐसी घटना देखकर मन करुणा से द्रवित हो जाता है की अपना कार्य निकलने के लिए कुछ चालाक लोग भोली-भाली जनता के मनोभावों से खिलवाड़ करते हैं. उनके भोलेपन का फायदा उठाते हैं.
आजकल ऐसी घटनाएँ बहुत देखने को मिलती है कारण आर्थिक संकट भी हो सकता है. महंगाई के कारण जनता आर्थिक संकट से जूझ रही है, परिणामस्वरूप अपने को संकट से निकलने के लिए धूर्त लोगों के चक्कर में फंस जाते हैं.
कीर्तन करना बहुत अच्छी बात है लेकिन उसमें इस तरह का अन्धविश्वास या पाखंड नहीं होना चाहिए .
हम अपने समाज को अन्धविसवासी ,पाखंडी नहीं बनाकर स्वच्छ धार्मिक एवं स्वस्थ दिमाग वाला बनायें. जिससे आगत भविष्य या अगली पीढ़ी इन ढकोसलों से दूर रहकर एक सभ्य समाज में सांस ले.

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