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उपवन -५ देहरादून की स्मृति

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उपवन में जितने तरह के पेड़ पौधे होते हैं उतने तरह के लोग भी बिभिन्न उद्देश्य से आते हैं. आप चाहें तो किसी भी शहर के किसी भी उपवन में चले जाएँ वहां कोई न कोई ऐसी घटना व लोगों से साक्षात्कार हो जाएगा जो आपके स्मरण कक्ष में अनायास ही किसी अनचाहे अतिथि की तरह घुस जायेगा.
मैं जिस किसी भी शहर में किसी भी कारण से जाती हूँ उस शहर के किसी न किसी उपवन की सैर जरूर करती हूँ. ऐसे ही जब मैं देहरादून गई थी तो स्वभावावस वहां के पार्क में गुमने चली गई. उपवन में जाने से हर तरह के लोगों को देखने का मौका मिलता है. पेड़ पौधे करीने से मालीओं द्वारा कांट-छांट कर बिभिन्न रूप में सजाया गया होता है. और यहाँ आने वाले लोग भी सज सवंर कर घुमने आते हैं. मेरी नजर पेड़ पौधों के साथ -साथ लोगों को भी तौलने में व्यस्त था. तभी अचानक मेरी नजर एक अत्यंत सभ्रांत सी महिला पर अटक गई.
लाल साडी में लिपटी वह अत्यंत सुन्दर महिला कुछ अलग ही दिख रही थी. नजरें बरवस उनकी ही तरफ खिंच जाती थी.उनकी लावण्यता में कोई भी निसंदेह खो जाता. उस रमणी की अंदाज अवर्णनीय थी.
समीप आने पर मैं उनसे मुखातिब हो बातचीत में संग्लग्न होने का लोभ संबरण नहीं कर सकी. उनसे उनका परिचय लिया और अपनी परिचय दी. परिचय की आदान प्रदान के बाद पता चला की वह जोधपुर से आईं हैं. वाह आवाज की मिठास का क्या कहना.
हम दोनों बार बार मिलने लगे. और आदत अनुसार मैं उनके संस्कृति के बारे में ज्यादा बातें करती थी. वो वहां के कलाकृति इत्यादि के विषय में बहुत ही रुचिपूर्ण तरीके से बताती थी. हम उन्हें मुग्दभाव से सुनते थे. आपसी गहरापन बढ़ता गया और एक दिन वह मुझे अपने घर ले गईं. उनकी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाई गई घर को देखकर मन और भी स्नेह से भर गया. वहीँ ड्राइंग रूम में उनके पति बैठे थे. मैंने नमस्कार किया लेकिन उन्होंने कोई भी उत्तर नहीं दिया. मेरे अभिवादन का कुछ भी जबाब नहीं मिलने से मुझे अच्छा नहीं लगा. उन्होंने शायद मेरे मनोभाव को समझ लिया. उन्होंने धीरे से कहा -ये बोल नहीं पते है.इनकी आवाज चली गई है. मैं तो अवाक् हो गई,किन्कर्त्व्यबिमुग्ध हो गई. कुछ समझ नहीं आ रहा था उनसे क्या कहूँ? उन्होंने कहा कल पार्क में मैं अपनी सारी आपबीती सुनाउंगी.
मैं अपने घर लौट आई थी लेकिन ध्यान मेरा उन्हीं भाभी की कथा जानने को व्याकुल थी. दुसरे दिन जब उनसे पुनः मुलाकात हुई तो उन्होंने अपनी कथा इस प्रकार कहा- उनके पति बहुत ही सज्जन थे. सदैव परोपकार में लीन रहते थे. अपने परिवार के प्रति पुर्णतः समर्पित रहते थे. भाइयों में जान बसती थी. अपनी कमाई का अधिकांश भाग उन्हीं लोगों को देते थे. भाभी भी कभी मना नहीं करती थी. सदैव उनके इच्छा अनुसार ही चलती थी.
समय सदीव एक सा नहीं रहता. एक बार इनकी एक्सीडेंट हो गया था. बहुत दिनों तक अस्वस्थ रहे. जिन भाइयों को अपनी सारी पूंजी दे डाली थी उन्होंने पूछा तक नहीं आना तो दूर की बात. ये अन्दर ही अन्दर टूट गए थे.बहुत ही कठिनता से इनको सम्भाला था. बच्चे भी छोटे थे.लम्बी बीमारी के कारण नौकरी भी छुट गई थी.इन्होने अपने एक मित्र के साथ बिजनेश शुरू किया. एक बार फिर जीवन अपनी गति से पटरी पर चलने लगी. सभी प्रसन्न थे. एक बार बच्चों की इच्छा से हम ‘अंडमान’ घूमने गए. जब लौट कर आये तो मित्र का व्यवहार बदला बदला सा था. दरअसल ये अपने मित्र पर बहुत ज्यादा विश्वास करते थे. यहाँ तक की बाहर जाते समय अलमीरा की चाभी भी उस मित्र को दे कर जाते थे. इसबार जब अंडमान गए तो सब कुछ उस मित्र को देकर चले गए थे. मित्रता शायद एकतरफा था. ये मित्र समझते थे लेकिन इनके मित्र शायद इनको मित्र नहीं समझता था. चलचित्र की तरह इनके मित्र ने इनके हिस्से की सारी पूंजी अपने नाम ट्रान्सफर करावा लिया था. और वो पुनः ठगे गए थे. आज करीब चार साल हो गया उस घटना के बाद इनकी आवाज ही चली गई. फिर कभी बोल नहीं पाये. डाक्टर ने भी जबाब दे दिया कहा इश्वर पर आस्था रखिये. वहां ये बहुत अपमानित अनुभव कर आरहे थे इसलिए हम अपने भाई के सलाह से देहरादून चले आये. यह बहुत ही मनोहारी शहर है.पास में ही हरिद्वार है. यहाँ का स्कूल भी अच्छा है. बच्चों की पढ़ाई भी अच्छे से हो जायेगी. मैंने भी एक दो जगह आवेदन दिया है. देखो क्या होता है. वैसे आशा है की नौकरी मिल जाएगी. आशा है इनके स्वास्थ में भी धीरे धीरे सुधार आ जाएगी.
उनकी बातें सुनकर मन द्रवित हो गया. और शाम भी ढल चुकी थी और समस्त वातावरण पर अंधकार की चादर तेजी से फैल रही थी. बहुत बड़ी सिख जो मुझे मिली थी वह यह की कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना चाहिए सदीव भाभी की तरह मुस्कुराना चाहिए. मन ही मन एक और प्रण लिया की किसी पर भी आँख मूंद कर विश्वाश नहीं करना चाहिए.
—–टंकण में काफी त्रुटियाँ है, कृपया सुधीजन से आग्रह है की त्रुटियों को नजर अंदाज कर दें.

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