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उपवन -२ बंगलुरु का लालबाग

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उपवन के सिलसिला में यह मेरा दूसरा अनुभव है. उपवन हमें ढेर अनुभव देती है. मैं अपनी दूसरी अनुभव आप लोगों के समक्ष रखने जा रही हूँ.
लालबाग वाह! क्या मनोहारी दृश्य था. मन करता था की इस दृश्य को अपने आँखों में बसा लूँ. चारों तरफ सुगंध से भरपूर गुलाब ही गुलाब. वास्तव में लाल बाग की गुलाबों का कोई सानी नहीं है. जहाँ तक दृष्टि जाये वहां गुलाब ही गुलाब. मनोरम दृश्य देख कर सब मुग्ध हो रहे थे.
मेरी दशा तो देखने वाली थी. अचंभित हो कर अवलोकन कर रही थी. मेरे पति मुझे सुध-बुध खोये हुए देख कर हंस रहे थे.
तभी अचानक मेरी दृष्टि लाठी लिए हुए ७०-८० वर्ष की महिला पर पड़ी. वह मुझे ही निहार रही थी. मैंने मुस्कुराकर उनका अभिवादन किया. फिर वह मेरे पास आकर बैठ गई.मेरा नाम पूछा और बोली बेटा आप कहाँ की रहने वाली हो. मैंने कहा क्यों आंटी, मैं भारत की ही हूँ. वैसे जन्म बिहार में हुआ है. उन्हें अपने प्रश्न पर खुद ही हंसी आ गई. उन्होंने स्वीकार किया की मेरी बात सही है और कहा – हाँ हम सभी भारत माता के ही संतान हैं.
मुझे किसी मित्र ने एक सन्दर्भ सुनाया था जो मैं यहाँ उधृत करना चाहूंगी.” एक अमेरिकन हिंदुस्तान घुमने आया था. यहाँ से घूम कर लौटने के बाद अमेरिका में एक हिन्दुस्तानी मित्र से मिलने गया और हिंदुस्तान के बारे में बताने लगा, उस हिन्दुस्तानी मित्र ने अमेरिकन से पूछा की तुम्हें हिन्दुस्तानी लोग कैसे लगे? तब उस अमेरिकन ने जबाब दिया की हिंदुस्तान में उसे कोई हिन्दुस्तानी नहीं मिला बल्कि बिहारी मिला,गुजराती मिला,पंजाबी मिला,मराठी मिला,तमिल मिला, हैदराबादी मिला,लखनवी मिला, लेकिन कोई हिन्दुस्तानी नहीं मिला.”
खैर, मैंने उत्सुक्तावस उनके विषय में जानना चाहा और तत्संबंधी प्रश्न किया. उन्होंने बताया की बेटी तुम्हारे अंकल यहीं नौकरी करते थे. एक दिन एक्सीडेंट में चल बसे. मेरे सामने दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. बच्चे छोटे थे.मैंने अपने आप को संभाला. उन्हीं के आफिस में काम मिल गया. फिर घर में सिलाई का भी काम करने लगी. बेटी पांच साल की थी और बेटा दो साल का. फिर बच्चों का पालन -पोषण करने लगी. बच्चे बहुत ही होनहार थे. बेटी टीचर बन गई और बेटा डाक्टर. दोनों अपनी गृहस्थी में संतुष्ट हैं.
अब मेरी उम्र हो गई है. बेटा, मैंने एक संस्था खोल ली जो अनाथ बच्चों की परवरिश करती है.
अब तो भगवान से यही प्रार्थना है की अपने पास बुला लें. फिर उन्होंने मुझे उस संस्था में ले गई. वहां रहने वाले अनाथ बच्चों से मिलकर और आंटी की हिम्मत(इस उम्र में भी) और परोपकार की भावना देख कर मन श्रद्धा से झुक गया. यदि कभी इश्वर ने साथ दिया तो मैं उन लोगों के लिए कुछ करुँगी जो सड़क पर अपना गुजर करतें हैं.ठण्ड में ठिठुरते रहतें हैं.गर्मी में तपते रहते हैं. बारिश में भीगते रहतें है. बे-घर को घर देना शायद मेरी कामना है.
डा.रजनी.

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